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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
स्वरूप का निश्चयात्मक-ज्ञान कराना है और श्रोता का प्रयोजन सबसे पहले उस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए ग्रन्थ-अध्ययन में प्रवृत्ति करना है। इस प्रकार, प्रमाण और नय द्वारा वस्तुतत्त्व का ज्ञान कराना और उस ज्ञान को प्राप्त करना क्रमशः कर्ता और श्रोता- इन दोनों का प्रयोजन है। यह प्रयोजन इष्ट है। प्रयोजन इष्ट होने से अनिष्ट प्रयोजनरूपी दूसरी शंका का भी समाधान हो जाता है।"
प्रतिपक्ष की तीसरी शंका यह है कि असम्बद्ध प्रयोजन में बुद्धिमानों की प्रवृत्ति नहीं होती है। इसका समाधान करते हुए ग्रन्थकार लिखते हैं कि आदिवाक्य का प्रयोजन शब्द और अर्थ के संबंध को स्पष्ट कर शब्दों के माध्यम से वस्तुतत्त्व का बोध कराना है और यह प्रयोजन सुसंबद्ध है। यद्यपि यहाँ शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचकभावरूप जो संबंध माना गया है, उसे 'प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमिदमुपक्रम्यते'- इस सूत्र में स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं किया गया है, फिर भी ग्रन्थ-लेखनरूप इस प्रयत्न में अर्थापत्तिप्रमाण द्वारा शब्द और अर्थ में रहे हुए वाच्य-वाचक-संबंध को जाना जा सकता है, अतः, आदिवाक्य का प्रयोजन, शब्द और अर्थ में वाच्य-वाचक-संबंध के आधार पर सुसम्बद्ध होने से तीसरी शंका का भी निराकरण हो जाता है। 6. रत्नाकरावतारिका की विषयवस्तु -
आचार्य वादिदेवसूरि ने 'प्रमाणनयतत्त्वालोक' नामक सूत्र-ग्रन्थ की रचना की थी और उन्होंने स्वयं ने ही उसकी "स्याद्वादरत्नाकर' नामक विस्तृत टीका भी लिखी थी, किन्तु स्याद्वादरत्नाकर टीका-ग्रन्थ होकर भी अति क्लिष्ट है, अतः, वादिदेवसूरि के शिष्य आचार्य रत्नप्रभसूरि ने यह रत्नाकरावतारिका नामक प्रस्तुत मध्यम आकार की टीका लिखी है, जिसमें अन्य दार्शनिकों द्वारा उठाई गई शंकाओं का समाधान भी आचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा किया गया है। यहाँ हम रत्नाकरावतारिका की विषयवस्तु का विवरण उसके परिच्छेदों के क्रम से करेंगे - 1. प्रस्तुत ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका का प्रथम सूत्र 'प्रमाणनयतत्त्व व्यवस्थापनार्थमिदमुपक्रम्यते' है। यह आदिवाक्य ग्रन्थ के मुख्य प्रयोजन को स्पष्ट करता है, किन्तु आदिवाक्य का यह प्रयोजन शब्दार्थ-संबंध के
34 रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि, पृ. 15 35 रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि, पृ. 15
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