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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
रत्नाकरावतारिका के लेखन का प्रयोजन
रत्नाकरावतारिका के लेखन के प्रयोजन को अशक्य बताते हुए प्रतिपक्ष का कहना है कि चाहे शेषनाग के मस्तक पर रखी हुई मणि बढ़ते हुए ज्वर को रोकती हो, किन्तु उस मणि का प्राप्त होना ही असंभव है, उसी प्रकार इस रत्नाकरावतारिका नामक ग्रन्थ में प्रतिपादित प्रमाण और नय के द्वारा वस्तुतत्त्व का ज्ञान होना भी अशक्य है। जिस प्रकार मणि की प्राप्ति अशक्य है, उसी प्रकार प्रमाण एवं नय के स्वरूप का ज्ञान भी शब्दों के माध्यम से अशक्य होने से प्रथम, प्रयोजन निरर्थक है। दूसरे, माता के साथ जिस प्रकार विवाह करना अनुचित या अनिष्टकारक है, उसी प्रकार इस ग्रन्थ का प्रयोजन भी अनिष्टकारक है। जिस प्रकार दस और अनारये दोनों शब्द परस्पर असंबद्ध हैं, उसी प्रकार शब्द और अर्थ में कोई यथार्थ संबंध नहीं होने से ग्रन्थकार का प्रयोजन सार्थक नहीं है ।
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अतः, प्रतिपक्ष का कहना है कि उपर्युक्त इन तीनों दृष्टियों से ग्रन्थ-लेखन का प्रयोजन उपयुक्त न होने के कारण बुद्धिमान् पुरुषों की प्रवृत्ति रत्नाकरावतारिका नामक ग्रन्थ में कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है, 27 किन्तु इसके विपरीत, ग्रन्थकर्त्ता आचार्य रत्नप्रभसूरि ने यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि प्रस्तुत कृति में विद्वान् पुरुषों की प्रवृत्ति संभव है, क्योंकि प्रस्तुत कृति का प्रयोजन 1. शक्य 2. इष्ट और 3. सुसंबद्ध है।
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शक्य, इष्ट और सुसम्बद्ध प्रयोजन में बुद्धिमान् पुरुषों की प्रवृत्ति अवश्य होती है, मात्र अशक्य, अनिष्ट और असम्बद्ध प्रयोजनों में उनकी प्रवृत्ति नहीं होती है । शक्य, इष्ट और सुसम्बद्ध प्रयोजन ही वस्तु-स्वरूप का निश्चय करना है। इस संबंध में प्रतिवादी की शंका का निराकरण करते हुए ग्रन्थकर्ता रत्नप्रभसूरि लिखते हैं कि प्रमाण और नय के स्वरूप का निश्चय करने के लिए ही रत्नाकरावतारिका नामक इस ग्रन्थ का प्रारंभ किया जाता है। 28
27 रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि, पृ. 13
28 रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि, पृ. 13
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प्रमाण और नय का स्वरूप
प्रमाण और नय का स्वरूप कैसा होना चाहिए, इसे स्पष्ट करते हुए ग्रन्थकर्ता बताते हैं कि संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय से रहित जो
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