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________________ 48 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा ज्ञान वस्तु को समग्ररूपेण ग्रहण करता है, वही प्रमाण है तथा जिसमें वस्तु का आंशिक या एकदेशीय ज्ञान होता है, वह नय है। शंका - यहाँ प्रतिवादी की शंका यह है कि द्वन्द्व-समास का यह नियम होता है कि अल्प स्वर वाले पद पहले होते हैं तथा अधिक स्वर वाले बाद में, इस अपेक्षा से यहाँ प्रमाण के पूर्व नय शब्द को रखना था ? समाधान - इसका समाधान करते हुए ग्रन्थकर्ता लिखते हैं कि सामान्यतया लक्षण को प्रथम तथा हेतु को बाद में स्थान दिया जाता है, अतः, यहाँ हेतु अल्प स्वर वाला होने पर भी तथा लक्षण अधिक स्वर वाला होने पर भी लक्षण को ही प्रथम स्थान दिया गया है, क्योंकि नियम यही है कि हेतु लक्षण के बाद ही आता है, साथ ही प्रमाण को समग्र वस्तु के ज्ञान का ग्राहक होने से प्रमाण को प्रथम स्थान दिया गया है। नय आंशिक ज्ञान का ग्राहक है, अतः, उसे बाद में रखा गया है। जब किसी वस्तु का आंशिक रूप से ज्ञान या कथन करना हो, तो उसे नय के द्वारा कहा जाता है। जिस प्रकार पिता के अभाव में पुत्र अर्थात् उसका अंश नहीं होता है, उसी प्रकार बिना प्रमाण के नय का भी अस्तित्व नहीं है। प्रमाण में नय समाविष्ट है, अतः, नय को प्रमाण के पश्चात् रखा गया है। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि प्रमाण अनुभूति का विषय है और नय अभिव्यक्ति का। बिना अनुभूति के अभिव्यक्ति संभव नहीं है। इस ग्रन्थ के लेखन का मुख्य प्रयोजन प्रमाण और नय के स्वरूप का निश्चय करना है। इसी प्रयोजन के लिए ग्रन्थकर्ता द्वारा इस ग्रन्थ के लेखन का प्रयत्न किया गया है- 'प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमिदमुपक्रम्यते। यहाँ इस आदिवाक्य में प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थ यह वाक्यांश लेखनरूप की जाने वाली क्रिया 'उपक्रम्यते' का विशेषण है। इस प्रकार, प्रस्तुत सूत्र में 'इदम्' शब्द द्वारा 'उपक्रम्यते' जो निर्देश किया गया है, वह ग्रन्थ का विशेषण न होकर आचार्य द्वारा प्रमाण-नय की व्यवस्था हेतु जो ग्रन्थ-लेखन की प्रयत्नरूप क्रिया है, उस प्रयत्नरूप क्रिया का विशेषण है। इसी प्रकार, 'इदम्' शब्द भी आचार्य का विशेषण न होकर उनके ग्रन्थ-लेखनरूप प्रयत्न को ही सूचित करता है। ग्रन्थकर्ता का उद्देश्य तो प्रमाण-नय का निश्चय करना या उसका स्वरूप बताना है और इसीलिए रत्नाकरावतारिका नामक इस 29 रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि, पृ. 13 रत्नाकरावतारिका, भाग 1, रत्नप्रभसूरि. पृ. 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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