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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा प्राकृत भाषा में की, इससे यह पता चलता है कि उन्हें प्राकृत भाषा का भी अच्छा ज्ञान था । 46 2. दोघट्टीवृत्ति - रत्नप्रभसूरि ने धर्मदासकृत उपदेश -माला पर 11150 श्लोक - परिमाण दोघट्टीवृत्ति लिखी है। इसका रचनाकाल उन्होंने विक्रम संवत् 1238 बताया, तदनुसार यह ईस्वी सन् 1182 की रचना है । इस वृत्ति के निर्माण में उन्हें अपने गुरु भ्राता विजयसेनसूरि की प्रेरणा मिलती रही है । विजयसेनसूरि रत्नप्रभसूरि के गुरु आचार्य वादिदेवसूरि के अनुज थे और एक अपेक्षा से इनके गुरु भ्राता भी थे। इनकी इस कृति का संशोधन भद्रेश्वरसूरि ने किया था। वे भी आचार्य वादिदेवसूरि के शिष्य थे। इससे यह भी सिद्ध होता है कि रत्नप्रभसूरि को अपने गुरु भ्राताओं से भी पर्याप्त सहयोग मिला है। स्याद्वादरत्नाकर की रचना में वादिदेवसूरि को रत्नप्रभसूरि के अतिरिक्त जिनका सर्वाधिक सहयोग मिला था, वे भद्रेश्वरसूरि ही थे । आचार्य वादिदेवसूरि ने स्याद्वादरत्नाकर की प्रशस्ति में जिनके सहयोग का उल्लेख किया है, उनमें भद्रेश्वरसूरि एवं रत्नप्रभसूरि का ही नाम आता है। 3. रत्नाकरावतारिका जैसा कि हमने पूर्व में ही स्पष्ट किया है कि दार्शनिक - दृष्टि से रत्नप्रभसूरि की रचनाओं में रत्नाकरावतारिका का महत्वपूर्ण स्थान है। यह ग्रन्थ उन्होंने अपने गुरु वादिदेवसूरि के प्रमाणनयतत्त्वालोक की बृहत् एवं क्लिष्ट टीका स्याद्वादरत्नाकर में प्रवेश करने के लिए ही बनाया था। इसके अतिरिक्त, रत्नप्रभसूरि की रचनाओं में परीक्षा, पंचाशत अंतरंग सन्धि, अपभ्रंशकूलक आदि रचनाएँ भी रही हैं । 5. रत्नप्रभसूरि की गुरु-परंपरा एवं गुरु- भ्राता - --- रत्नप्रभसूरि के गुरु वादिदेवसूरि थे। वादिदेवसूरि बृहद्गच्छ के मुनि चंद्रसूरि के शिष्य थे । वादिदेवसूरि के शिष्य - परिवार में भद्रेश्वरसूरि, विजयचंदसूरि, रत्नप्रभसूरि, परमानन्दसूरि और माणिक्यनन्दसूरि प्रमुख थे। इससे यह ज्ञात होता है कि रत्नप्रभ के गुरु और गुरुभ्राता, सभी उच्चकोटि के विद्वान् थे और यही कारण है कि रत्नप्रभसूरि को विद्वत्-गुरु एवं गुरु-भ्राताओं का ऐसा परिकर प्राप्त हुआ, जिसके कारण वे रत्नाकरावतारिका जैसी महान् कृति के लेखन में समर्थ हुए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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