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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
परवर्ती है। आचार्य वादिदेवसूरि ने सर्वप्रथम प्रमाणनयतत्त्वालोक की रचना की और उसके पश्चात् ही उसी की स्वोपज्ञ-टीका के रूप में स्याद्वादरत्नाकर जैसे विशाल ग्रंथ की रचना की थी। यह उनकी वृद्धावस्था की रचना होगी, जिसमें उन्होंने रत्नप्रभ का सहयोग भी लिया था। इससे यह भी फलित होता है कि रत्नप्रभसूरि की यह रचना भी उनकी प्रौढ़ अवस्था की ही प्रतीत होती है, क्योंकि प्रारंभिक अवस्था में ऐसी प्रौढ़ रचना कर पाना सम्भव नहीं है। यद्यपि ग्रंथ-प्रशस्ति में रत्नप्रभ ने कहीं भी ग्रंथ के रचनाकाल का निर्देश नहीं किया है, फिर भी इतना अवश्य माना जा सकता है कि इस ग्रंथ की रचना लगभग बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही की होगी। ग्रंथ-प्रशस्ति के अंत में रत्नप्रभसूरि ने अपनी विनम्रता को प्रदर्शित करते हुए यह कहा है कि इस ग्रंथ की रचना में यदि उन्होंने मतिभ्रम के वशीभूत होकर न्यायमार्ग का अतिक्रम किया हो, तो तार्किकों से यह निवेदन है कि वे उन पर कृपा करके आवश्यक संशोधन कर दें। इससे उनकी विद्वत्ता और विनम्रता- दोनों ही गुणों की सिद्धि हो जाती है, साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि रत्नाकरावतारिका की रचना के समय उनके गुरु वादिदेवसूरि का स्वर्गवास हो चुका था, अन्यथा वे उनसे संशोधन करवाकर कृति को निर्दोष बना सकते थे। सामान्यतः, यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि भारत में प्रायः प्रबुद्ध व्यक्ति अपने संबंध में अधिक कुछ नहीं कहते हैं। यही कारण है कि हमें भी रत्नाकरावतारिका जैसे गंभीर ग्रंथ के रचयिता रत्नप्रभसूरि के गृहस्थ-जीवन एवं शिक्षा-दीक्षा के संदर्भ में विशेष कुछ ज्ञात नहीं होता है और यहाँ इसी संक्षिप्त परिचय के साथ विराम लेना पड़ रहा है। 3. रत्नाकरावतारिका के कर्ता के गुरु वादिदेवसूरि का काल -
रत्नप्रभसूरि के गुरु वादिदेवसूरि के काल के संदर्भ में रत्नाकरावतारिका के प्रथम भाग के सम्पादकीय में लिखा है कि वादिदेवसूरि गुजरात के सिद्धराज की सभा के पंडित थे। इनका जन्म विक्रम संवत् 1143, तदनुसार ईस्वी-सन् 1086 में हुआ था। इन्होंने विक्रम संवत् 1152, तदनुसार ईस्वी सन् 1095 में नौ वर्ष की अल्प वय में ही चन्द्रकुल से निकले बृहदगच्छ के मुनि चन्द्रसूरि के पास दीक्षा ग्रहण की थी। इनका दीक्षा-पूर्व नाम रामचन्द्र था। विक्रम संवत् 1174, अर्थात् ईस्वी-सन् 1117 में मात्र 31 वर्ष की वय में इन्हें आचार्य पद प्रदान किया गया था और इनका नाम देवसूरि रखा गया था। चूंकि ये वाद-विद्या में अत्यंत पारंगत थे, इसलिए ये आगे चलकर वादिदेवसूरि के नाम से प्रसिद्ध
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