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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
ग्रन्थ स्याद्वादरत्नाकर की रचना में उनके सहयोगी भी रहे थे। यह बात स्वयं वादिदेवसूरि ने स्वीकार की है । रत्नाकरावतारिका के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि ऐसे विद्वान् गुरु के सान्निध्य में ही रत्नप्रभ की शिक्षा-दीक्षा हुई होगी। रत्नाकरावतारिका में अन्य दर्शनों की जो विस्तृत समीक्षा उपलब्ध होती है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रत्नप्रभ ने भी सभी भारतीय दार्शनिक - परंपराओं का अध्ययन किया होगा, अतः, यह स्पष्ट है कि रत्नप्रभ अपने युवावस्था के प्रारंभ में ही दीक्षित हो गए होंगे। विभिन्न दार्शनिक-परंपराओं के मूल ग्रंथों के अध्ययन का जो अवसर उन्हें मिला, वह यही सूचित करता है कि वे अपने युवाकाल में ही दीक्षित हुए होंगे और सभी भारतीय - दर्शनों के पारंगत विद्वान् गुरु वादिदेवसूरि से ही समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया होगा, अतः उनकी शिक्षा-दीक्षा वादिदेवसूरि के सान्निध्य में ही हुई, यह निश्चित रूप से माना जा सकता है। चूँकि वादिदेवसूरि ने सिद्धराज की सभा में ही दिगम्बर - आचार्यों से वाद किया था, अतः, रत्नप्रभ भी उन्हीं के लघुवयस्क समकालीन माने जा सकते हैं। सिद्धराज जयसिंह का शासनकाल ईस्वी सन् 1094 से ईस्वी सन् 1143 तक रहा है। यह संभव है कि उन्होंने रत्नाकरावतारिका की रचना उसके पश्चात् अपनी परिपक्व अवस्था में ही की होगी। चूंकि ग्रंथ-प्रशस्ति में ही उन्होंने स्पष्ट रूप से यह लिखा है कि मैने रत्नाकरावतारिका की रचना स्याद्वादरत्नाकर जैसे ज्ञान के महासागर में प्रवेश करने के लिए एक नौका के रूप में की है, अतः, रत्नाकरावतारिका का रचनाकाल स्याद्वादरत्नाकर के पच्चीस-तीस वर्ष बाद का ही होगा। यह स्पष्ट है कि रत्नाकरावतारिका का रचनाकाल स्याद्वादरत्नाकर से
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26 प्रमाणे च प्रमेये च, बालानां बुद्धि सिद्धये । किंचिद् वचन चातुर्यचापलायेयमादधे ।। 1 ।। न्यायमार्गादतिक्रान्तं, किंचित्रमतिभ्रमात् । यदुक्तं तार्किकैः शोध्यं तत् कुर्वाणैः कृपां मयि ।। 2 || आशावासः समय समिधां संचयैश्चीयमाने, स्त्री निर्वाणोचित शुचि वचश्चातुरीचित्रभानौ प्राजापत्यं प्रथयति तथा सिद्धराजे जयश्रीः, यस्योद्वाहं व्यधित स सदा नन्दताद् देवसूरिः ।। 3 ।। प्रज्ञातः पदवेदिभिः स्फुटदृशा संभाविस्तार्किकः, कुर्वाणः प्रमदाद् महाकविकथां सिद्धान्तमार्गाध्वगः । दुर्वाद्यंङ्कुशदेवसूरिचरणाम्भोजद्वयीषट्पदः,
श्रीरत्नप्रभसूरिरल्पतरधीरेतां व्यधाद् वृत्तिकाम् ।। 4 ।। वृत्तिः पंचसहस्त्राणि, येनेयं परिपठ्यते ।
भारती भारती चास्य, प्रसर्पन्ति प्रजल्पतः | 15 || रत्नाकरावतारिका, भाग3, अन्तिम प्रशस्ति
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