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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा इंधन से वृद्धि को प्राप्त अग्नि के समक्ष सिद्धराजरूपी पुरोहित द्वारा विजयश्री का वरण करने वाले, अर्थात् उनका खंडन करने वाले और 'स्त्रियों को अवश्य ही निर्वाणपद प्राप्त होता है इस बात को सिद्ध करके महाराजा सिद्धराज की सभा में विजयलक्ष्मी को प्राप्त करने वाले वादिदेवसूरि जयवंत हों।" इस श्लोक से यह स्पष्ट हो जाता है कि वादिदेवसूरि श्वेतांबर-परंपरा में हुए थे और वे सिद्धराज जयसिंह के समकालीन थे। चूँकि रत्नप्रभ वादिदेव-सूरि के हस्तदीक्षित शिष्य थे, अतः, उनसे लघुवयस्क होते हुए भी समकालीन तो माने ही जा सकते हैं। इससे यह भी सिद्ध हो जाता है कि इनका काल सिद्धराज जयसिंह के राज्यकाल के समान ही ईसा की ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी का रहा है। यह भी स्पष्ट है कि सिद्धराज जयसिंह की सभा में आचार्य हेमचंद्र का बहुत मान था, अतः, रत्नप्रभसूरि आचार्य हेमचंद्र के भी समकालीन रहे हैं। इस ग्रंथ की प्रशस्ति के आधार पर इनकी गुरु-पंरपरा, सम्प्रदाय और इनका कालतीनों ही सुस्पष्ट हो जाते हैं। इसमें किसी प्रकार की भ्रांति नहीं रहती है। मात्र यही नहीं, इन्होंने अपने ग्रंथ रत्नाकरावतारिका के परिमाण का भी उल्लेख इस ग्रंथ प्रशस्ति में कर दिया है। ग्रंथ-प्रशस्ति में रत्नाकरावतारिका में पाँच हजार श्लोक-परिमाण बताया गया है, अतः, रत्नाकरावतारिका के कर्ता, उनकी परंपरा, काल और ग्रंथ-परिमाण, ये सब ग्रंथ-प्रशस्ति से स्पष्ट हो जाते हैं, फिर भी यह ग्रंथ-प्रशस्ति मात्र पाँच श्लोकों में वर्णित है, इसलिए इसमें रत्नप्रभसूरि के गृहस्थ-जीवन, उनकी कृतियों आदि का विस्तृत विवेचन उपलब्ध नहीं है। इस संबंध में हमें अन्य स्रोतों से जो सूचनाएं मिली हैं, उनके आधार पर हम अग्रिम पंक्तियों में विस्तारपूर्वक चर्चा करना चाहेंगे। जहाँ तक रत्नप्रभसूरि के पूर्व गृही-जीवन का प्रश्न है, अन्य स्रोतों से भी हमें इस संबंध में कोई विशेष सूचना नहीं मिलती है। जैसा कि हमने पूर्व में कहा है, वे वादिदेवसरि के हस्तदीक्षित शिष्य थे। वादिदेवसरि श्वेतांबर--परंपरा के आचार्य थे, यह बात पूर्व में ही हम रत्नाकरावतारिका की अन्तिम ग्रंथ-प्रशस्ति में बता चुके हैं। ग्रंथ-प्रशस्ति में यह भी स्पष्ट हो जाता है कि वादिदेवसूरि न केवल जैन-दर्शन के उद्भट विद्वान् थे, अपितु वे व्याकरणदर्शन, न्यायदर्शन, बौद्धदर्शन आदि अन्य दर्शनों के भी जानकार थे। यही कारण है कि उन्होंने अपने ग्रंथ प्रमाणनयतत्त्वालोक की स्वोपज्ञ-टीका में लगभग सभी भारतीय-दर्शन की समीक्षा प्रस्तुत की है। आचार्य रत्नप्रभसूरि ऐसे ही विद्वद्वर्य आचार्य के शिष्य थे और उनके महान् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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