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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा जाती है । यद्यपि रत्नाकरावतारिका में रत्नप्रभ ने अपने गुरु के स्वोपज्ञ टीका- ग्रंथ स्याद्वादरत्नाकर को आधार बनाया है, किन्तु उन्होंने इसकी भाषा और प्रस्तुतिकरण की शैली में जिस स्पष्टता एवं सरलता को ग्रहण किया है, उसका परिणाम यह हुआ कि कालांतर में लोग स्याद्वादरत्नाकर को भूलकर रत्नाकरावतारिका को ही प्राथमिकता देने लगे । दिगम्बर - परंपरा में जैन-दर्शन के प्रौढ़-ग्रन्थों में जो स्थान अष्टसहस्री, प्रमेयकमलमार्त्तण्ड, न्यायविनिश्चय आदि का है, वही स्थान श्वेताम्बर - परंपरा में स्याद्वादरत्नाकर, रत्नाकरावतारिका आदि का माना जा सकता है । यद्यपि रत्नप्रभ के पश्चात् श्वेताम्बर - परंपरा में मल्लिषेण की स्याद्वादमंजरी नामक टीका और गुणरत्न की षड्दर्शनसमुच्चय नामक टीका- ग्रंथ उपलब्ध होते हैं, किन्तु यदि हम गम्भीरता से इन ग्रंथों का अध्ययन करके देखें, तो प्रथमतः तो गुणरत्न की षड्दर्शनसमुच्चय की टीका और मल्लिषेण की स्याद्वादमंजरी में अनेक अंश प्रायः समान ही हैं। पुनः, इन दोनों ग्रन्थों में भी अन्य दार्शनिक मतों के दर्शन और न्याय संबंधी सभी पक्षों का समावेश भी पूर्णतः नहीं हुआ है। इस दृष्टि से यदि कहा जाए, तो जैन- दर्शन एवं जैन - न्याय के गंथों में रत्नाकरावतारिका का एक महत्वपूर्ण स्थान सिद्ध होता है। इसके परवर्तीकाल में, यहाँ तक कि जैन- दर्शन में नव्यन्याय के प्रवर्त्तक यशोविजय जी के काल तक भी ऐसा कोई जैन - न्याय या जैन-दर्शन का प्रौढ़ ग्रंथ हमारी दृष्टि में नहीं है। यद्यपि अकलंक के लघीयस्त्रय, न्यायविनिश्चय, विद्यानंदी की अष्टसहस्री तथा स्वयं वादिदेवसूरि का स्याद्वादरत्नाकर जैसे प्रौढ़ ग्रंथ रहे हैं, किन्तु उनकी जटिलता और दुर्बोधता को देखते हुए यह कहना पड़ेगा कि रत्नाकरावतारिका जैन- न्याय और जैन- दर्शन का एक उपयोगी ग्रंथ है। वह न तो अति जटिल है और न ही अति सरल । 2. रत्नाकरावतारिका के कर्त्ता और उनका काल 25 25 1 जैसा कि हम पूर्व में निर्देश कर चुके हैं, रत्नाकरावतारिका के कर्त्ता रत्नप्रभसूरि हैं। उन्होंने इस ग्रंथ की अन्तिम प्रशस्ति में अपना और अपने गुरु वादिदेवसूरि का परिचय दिया है । यद्यपि ग्रंथ में विस्तृत परिचय तो नहीं मिलता, किन्तु उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि ये वादिदेवसूरि के शिष्य थे, साथ ही वादिदेवसूरि की प्रशंसा में इन्होंने जो श्लोक दिए हैं, उसमें स्पष्ट रूप से यह कहा है- "दिगम्बरों के सिद्धान्तरूपी लकड़ियों के (ब) देखें- रत्नाकरावतारिका की अन्तिम प्रशस्ति Jain Education International 41 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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