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________________ 396 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा लिए जो धूम हेतु है, उसे भी पर्वत पर होना चाहिए। यदि पर्वत पर धूम नहीं होगा, तो उससे पर्वत पर अग्नि की सिद्धि नहीं होगी- यही पक्षधर्मत्व है। 2. दूसरा, हेतु सपक्षसत्व है। इसका अर्थ है कि हेतु को सपक्ष अर्थात् साध्य के साथ ही अविनाभावरूप से होना चाहिए। साध्य के अभाव में उसे न होना चाहिए। यदि हेतु सपक्ष अर्थात् अग्नि के अतिरिक्त भी अन्यत्र पाया जाता है, तो वह हेतु सपक्ष में न होने के कारण साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ होता है। 3. तीसरे, हेतु का विपक्ष में अभाव होना चाहिए। यदि हेतु विपक्ष में भी उपस्थित रहता है, तो वह हेतु साध्य की सिन्दि करने में असमर्थ है। यदि धूम नामक हेतु अग्नि के साथ-साथ तालाब में भी पाया जाए, तो वह अग्नि की सिद्धि करने में समर्थ नहीं माना जा सकता है। बौद्ध-मत में जो हेतु के त्रैरूप्य लक्षण बताए गए हैं, वे वस्तुतः असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक हेत्वाभास के निराकरण के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इसी दृष्टि से, बौद्धों ने हेतु को त्रैरुप्य लक्षण वाला बताया था, वैसे जैनों के हेतु के 'अन्यथा अनुपपत्ति' नामक लक्षण से उनका कोई विरोध नहीं है। प्रस्तुत शोधग्रन्थ के बारहवें अध्याय में अनुमान में पक्ष को अनावश्यक मानने के सन्दर्भ में बौद्धमत की समीक्षा की गई है। जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका में पक्ष की अनावश्यकता के संबंध में बौद्धमत की समीक्षा करते हुए यह बताने का प्रयत्न किया है कि सामान्य व्यक्ति के लिए अनुमान में पक्ष को मानना आवश्यक है। इस संदर्भ में उनका यह कहना है कि पक्ष के नहीं मानने पर साध्य की सिद्धि कहाँ पर होगी। रसोईघर में धुएँ की उपस्थिति को देखकर पर्वत पर अग्नि की कल्पना नहीं की जा सकती। वस्तुतः, जिस पक्ष में हेतु की उपस्थिति देखी जाती है, वहीं साध्य की सिद्धि होती है, अतः, साध्य की सिद्धि के लिए पक्ष को मानना आवश्यक है। जैन-दार्शनिक भी यह मानते हैं कि प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए अनुमान में प्रतिज्ञा और हेतु- ये दो अवयव मानना ही पर्याप्त है, किन्तु यहाँ भी हमें यह तो स्वीकार करना ही होगा कि प्रतिज्ञा में उद्देश्य-पद के रूप में पक्ष तो निहित होता ही है। दूसरे, जहाँ तक सामान्य बुद्धि के व्यक्तियों का प्रश्न है, उनके लिये तो अनुमान में पाँचों ही अवयव मानना आवश्यक है और यह बताना भी आवश्यक है कि साध्य की सिद्धि कहाँ, अर्थात् किस पक्ष में हो रही है, अतः, पक्ष को अनावश्यक मानकर नकार देना उचित नहीं है। सामान्य बुद्धि के व्यक्ति के लिए पक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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