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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को जो प्रमाणरूप नहीं माना है, उसका मुख्य कारण उनकी तत्त्व - मीमांसा ही है । पुनः, जैनों के लिए स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाण मानने का कारण यह था कि नैयायिकों के समान जैनों ने प्रत्यक्ष-प्रमाण के भेद के रूप में सामान्य - लक्षणा प्रत्यासत्ति को नहीं माना था, इसलिए व्याप्ति की स्थापना के लिए उनको तर्क को अलग से प्रमाण स्वीकार करना पड़ा और तर्क को प्रमाणरूप स्वीकार करने के लिए स्मृति और प्रत्यभिज्ञा की प्रमाणरूपता आवश्यक थी, क्योंकि स्मृति की प्रमाणता के अभाव में प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप नहीं हो सकती और प्रत्यभिज्ञा को प्रमाणरूप हुए बिना तर्क या व्याप्तिबोध प्रमाणरूप नहीं होता और बिना व्याप्ति - स्थापन के अनुमान भी प्रमाण नहीं होगा, इसलिए हमारी दृष्टि में जैनों द्वारा स्मृति, प्रत्यभिज्ञा और तर्क को प्रमाणरूप मानना आवश्यक था। 392 प्रस्तुत शोधग्रन्थ के नौवें अध्याय में भारतीय - दर्शन में प्राप्यकारित्व की समस्या की समीक्षा में प्रो. अम्बिकादत्त शर्मा लिखते हैं कि प्राप्यकारित्व और अप्राप्यकारित्व को लेकर भारतीय दर्शन के जैन, बौद्ध और न्याय-वैशेषिक प्रस्थानों के सिद्धान्त में भिन्नता है। यद्यपि सामान्यतया सभी दार्शनिक यह स्वीकार करते हैं कि इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय को ग्रहण करके ही जानती है, किन्तु फिर भी यह मूल प्रश्न रहा है कि क्या इन्द्रियों का अपने विषयों से निकटस्थ रूप में संस्पर्श होता है ? या वे दूर से ही उन्हें ग्रहण कर लेती हैं ? जहाँ एक ओर न्याय-दर्शन पाँचों इन्द्रियों और मन को प्राप्यकारी मानता है, वहीं जैन- दर्शन भी मन एवं चक्षु के अतिरिक्त शेष चारों इन्द्रियों को प्राप्यकारी मानता है, अतः, जैन- दार्शनिकों ने नैयायिकों की समीक्षा मात्र चक्षु - इन्द्रिय की प्राप्यकारिता के संबंध में की है, किन्तु दूसरी ओर बौद्ध चक्षु - इन्द्रिय के साथ-साथ श्रोत्रेन्द्रिय को भी अप्राप्यकारी ही मानते हैं, अतः, जैनों ने बौद्धों की समीक्षा श्रोत्रेन्द्रिय की अप्राप्यकारिता के सम्बन्ध में की और यह सिद्ध किया कि घ्राणेन्द्रिय एवं स्पर्शनेन्द्रिय के समान श्रोत्रेन्द्रिय भी प्राप्यकारी है । इस संदर्भ में, रत्नप्रभसूरि का तर्क यह है कि शब्द लोक में प्रसारित होते हैं, अतः, शब्द ही श्रोत्रेन्द्रिय से सम्बधित होकर अपनी अनुभूति कराते हैं । ध्वनि तरंगों का आगमन श्रोत्रेन्द्रिय तक होता है और इसीलिए श्रोत्रेन्द्रिय भी प्राप्यकारी ही है । रत्नप्रभ ने यह तर्क दिया है कि जिस तरह से सुगन्धित द्रव्य एक स्थान पर होकर भी उसकी गंध का प्रसारण चारों ओर होता है, उसी प्रकार उच्चरित शब्द भी अपने उच्चारण-स्थान से आगे-आगे ध्वनि तरंगों के रूप में जाते हैं और श्रोता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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