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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा प्रमाण सत्ता में धौव्य-पक्ष को माने बिना संभव नहीं होते हैं। जिसे जैन- दार्शनिक स्मृति कहते हैं, बौद्धों के अनुसार वह तो मात्र चित्त - संतति का प्रवाह है। दूसरे, जब बौद्ध - विज्ञानवादी - दर्शन बाह्यार्थ की सत्ता का ही निषेध करता है अथवा जब शून्यवादी वस्तुसत् को निःस्वभाव और क्षणिक मानता है, तो फिर उसके दर्शन में स्मृति और प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप नहीं हो सकते है। स्मृति का अर्थ है- किस सत्-तत्त्व की स्मृति; किन्तु जब सत् स्वतः ही परिवर्तनशील हो और उसकी सत्ता क्षणिक हो, तो उसकी स्मृति कैसे हो सकती है ? विशेष रूप से, जो ज्ञाता चिन्न है, यदि वह भी दूसरे क्षण वही नहीं रहता हो, ऐसी स्थिति में बौद्धों के लिए यह संभव ही नहीं था कि वे स्मृति को प्रमाणरूप स्वीकार करें। इसी प्रकार, जब सत्ता दो समय भी एकरूप नहीं होती है, तो फिर 'यह वही है- ऐसी प्रत्यभिज्ञा भी कैसे संभव होगी ? प्रत्यभिज्ञा में तो भूतकाल में अनुभूत सत् की ही वर्त्तमान में अनुभूत सत् के साथ समानता आदि का अनुभव किया जाता है, अतः, बौद्धों के क्षणिकवाद और संततिवाद में स्मृति और प्रत्यभिज्ञा प्रमाणरूप नहीं हो सकते। चूँकि इस प्रकार, प्रमाण - चर्चा में बौद्ध - दार्शनिक तत्त्व - मीमांसा के प्रति सत्यनिष्ठ रहे और उन्होंने स्मृति और प्रत्यभिज्ञा को प्रमाणरूप मानने से इंकार कर दिया, इसके विरुद्ध जैन- दार्शनिक सत् को उत्पाद - व्ययरूप मानने के साथ-साथ ध्रौव्यात्मक भी मानते हैं, इसलिए उनके यहाँ ये दोनों प्रमाण स्वीकृत किए गए। जहाँ तक तर्क की प्रमाणता का प्रश्न है, बौद्ध-- दार्शनिक उसे भी एक स्वतंत्र प्रमाण के रूप में स्वीकार नहीं करते। सच तो यह है कि तर्क-प्रमाण किसी सार्वकालिक और सार्वदेशिक- तथ्य की कल्पना करता है, जिसके आधार पर व्याप्ति - सम्बन्ध का बोध होता है। दूसरे शब्दों में, वह सामान्य को स्वीकार करता है और वह सामान्य ही व्याप्ति का आधार होता है, जबकि बौद्ध दर्शन में सामान्य को केवल विकल्परूप ही माना गया है। उसे वे परमार्थ- सत् के रूप में स्वीकार ही नहीं करते हैं। यदि सामान्य को ही स्वीकार नहीं किया जाएगा, तो फिर व्याप्ति - सम्बन्ध के सूचक तर्क या ऊह को प्रमाणरूप कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? यही कारण है कि बौद्धों ने तो अनुमान को भी केवल व्यवहार के स्तर पर ही प्रमाण के रूप में स्वीकार किया है। जब वे सामान्य को ही स्वीकार नहीं करते हैं, तो फिर उनके लिए व्याप्ति - सम्बन्ध, जो कि सामान्य ही है, वह कैसे प्रमाण हो सकता है और ऐसी स्थिति में व्याप्ति को स्थापित करने वाले तर्क या ऊह की प्रमाणता को भी कैसे स्वीकार किया जा सकता है ? अतः, बौद्ध - दार्शनिकों ने Jain Education International For Private & Personal Use Only 391 www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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