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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
अध्याय 17 उपसंहार
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भारतीय - संस्कृति के दो प्रमुख अंग हैं. 1. वैदिक और 2. श्रमण । भारतीय-दर्शन में जैन और बौद्ध दर्शन श्रमण-संस्कृति के दर्शन हैं । इन दोनों दर्शनों का तुलनात्मक-अध्ययन युग की आवश्यकता है। इन दोनों दर्शनों में आचारशास्त्र के सिद्धांत - पक्ष की अपेक्षा से बहुत कुछ समानताएँ परिलक्षित होती हैं, किन्तु जहाँ तक दोनों की तत्त्व - मीमांसा और ज्ञान-मीमांसा का प्रश्न है, दोनों में हमें कुछ समानताएँ और कुछ भिन्नताएँ परिलक्षित होती हैं। अपनी तत्त्व-मीमांसा में जैन-दर्शन और बौद्ध-दर्शनदोनों एकान्तवाद के विरोधी हैं- इस तथ्य को पं. दलसुखभाई मालवणिया ने अपने शोध - आलेख स्याद्वाद और शून्यवाद में बहुत प्रामाणिकता के साथ प्रस्तुत किया। इसी प्रकार, डॉ. सागरमल जैन ने भी अपने आलेख बौद्ध और जैन-मीमांसा : एक तुलनात्मक अध्ययन में भी प्रस्तुत किया। इस प्रकार, जैन और बौद्ध-दर्शन- दोनों ही दर्शन एकान्तवादी - तत्त्वमीमांसीय और ज्ञान - मीमांसीय अवधारणाओं का विरोध करते हैं, किन्तु फिर भी दोनों के एकान्तवाद के विरोध में एक महत्वपूर्ण अन्तर परिलक्षित होता है, वह यह है कि जहाँ बौद्ध दर्शन एकान्तवाद का निषेध करके मध्यम प्रतिपदा की बात करता है, वहीं जैन-दर्शन एकान्तवाद का निषेध करके भी अपने अनेकान्तवाद के सिद्धान्त के आधार पर उन परस्पर विरोधी एकान्तवादों में समन्वय प्रस्तुत करता है । बुद्ध का कहना है- "मैं न तो शाश्वतदाद का प्रतिपादन करता हूँ और न उच्छेदवाद का ।" इस प्रकार, भगवान् बुद्ध का दृष्टिकोण प्रमुख रूप से एकान्तवाद को अस्वीकार करने का रहा है। उन्होंने यद्यपि मध्यम प्रतिपदा की बात कही है, फिर भी उनकी भाषा एकान्तवाद के सन्दर्भ में निषेधपरक ही रही है, वहीं जैन- दर्शन ने अपने अनेकान्तवाद के आधार पर एकान्तवाद के मध्य समन्वय करने का प्रयत्न किया । बुद्ध का कहना था कि सत्ता न तो नित्य है और न अनित्य है, जबकि जैन- दर्शन का कहना था कि सत्ता नित्यानित्य है । इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन- दर्शन और बौद्ध दर्शन में मूलभूत दृष्टि की अपेक्षा
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