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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
प्रस्तुतिकरण की शैली में भिन्नता रही है। भगवान् बुद्ध ने मध्यम प्रतिपदा का उद्घोष करते हुए उसे एकान्तवाद के निषेध के रूप में प्रस्तुत किया, जबकि भगवान् महावीर ने उन एकान्तवाद के मध्य समन्वय करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार, दोनों दर्शनों में प्रस्तुतिकरण की शैली का अन्तर होने से कहीं समानताएँ और कहीं विरोध परिलक्षित होता है, किन्तु इस सन्दर्भ में पं. दलसुखभाई मालवणिया, डॉ. सागरमल जैन आदि की मान्यता यह रही है कि अधिकांश विरोध शैलीगत रूप में ही है, तात्त्विक-रूप में अधिक विरोध नहीं है। हमने इसी दृष्टि को लेकर प्रस्तुत शोध-ग्रन्थ में, रत्नाकरावतारिका में बौद्ध-दर्शन की जो समीक्षा प्रस्तुत की गई है, उसके मूल्यांकन का प्रयत्न किया। अपने अध्ययन में मैंने यह पाया है कि बौद्ध-दर्शन की समीक्षा करते हुए रत्नाकरावतारिका में आचार्य रत्नप्रभसूरि ने भी बौद्धों को एकान्त-क्षणिकवादी, विज्ञानाद्वैतवादी, शून्याद्वैतवादी, बाह्यार्थ-निषेधवादी मानकर ही उनकी समीक्षा की है। मेरे शोध-निर्देशक डॉ. सागरमल जैन की भी मान्यता यही है कि जैन और जैनेतर आचार्यों ने बौद्ध-दर्शन को उसके सम्यक् परिप्रेक्ष्य में समझने का प्रयत्न नहीं किया
और उसके सिद्धान्तों को एकान्तवादी मानकर ही उनकी समीक्षा की है, किन्तु मेरे अध्ययन का विषय रत्नप्रभसूरि की रत्नाकरावतारिका में प्रस्तुत बौद्ध-दर्शन की समीक्षा रहा है, इसलिए उनके इस ग्रन्थ में प्रस्तुत दृष्टिकोण को ही आधार बनाकर मुझे उन समस्याओं का प्रस्तुतिकरण करना पड़ा है। यद्यपि अनेक प्रसंगों में मैंने यह निर्देशित करने का प्रयत्न किया है कि बौद्ध-दर्शन के इन सिद्धान्तों को एकान्तवादी मानकर ही समीक्षाएं की गई हैं, जबकि वास्तविक स्थिति ऐसी नहीं है, फिर भी ग्रन्थगत अध्ययन होने से ग्रन्थ के प्रति प्रामाणिकता को लक्ष्य में रखकर ही प्रस्तुत अध्ययन किया गया है, क्योंकि मेरा लक्ष्य यही रहा है कि ग्रन्थकार ने उसे जिस रूप में प्रस्तुत किया है, उसे उसी रूप में प्रस्तुत किया जाए और इसी दृष्टि को लक्ष्य में रखकर मैं इस शोधकार्य में प्रवृत्त हुई है, क्योंकि मेरा लक्ष्य यही बताना रहा है कि रत्नप्रभसूरि रत्नाकरावतारिका में बौद्ध-दर्शन को किस रूप में प्रस्तुत कर उसकी समीक्षा करते हैं।
रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका की रचना प्रमाणनयतत्त्वालोक के मूलभूत सिद्धान्तों को स्पष्टीकरण करने के लिए ही की थी। इसका रचनाकाल लगभग बारहवीं शताब्दी है। यह युग दर्शनों के परस्पर खंडन-मंडन का रहा है, अतः, यह सौभाग्य था कि रत्नप्रभसूरि ने बौद्ध-दर्शन के खंडन की दृष्टि से ही इस ग्रन्थ की रचना की थी।
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