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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
वह स्वभाव-भेद के कारण है, क्योंकि मृत्तिका कारणरूप है और घट कार्यरूप, मृत्तिका व्यापक है और घट व्याप्य है। इस प्रकार, इनमें स्वभाव-भेद होने के कारण कथंचित्-भेद भी है, सर्वथा अभेद नहीं है, क्योंकि घट का नाश होने पर मृत्तिका का नाश नहीं होता है। इस प्रकार,, इनमें स्वभाव-भेद है, अतः, प्रमाण और प्रमाणफल में भी इसी आधार पर कथंचित्-भेद मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है, क्योंकि इसमें प्रमाण कारणरूप है और अज्ञान - निवृत्ति कार्यरूप या फलरूप है। इस प्रकार, कार्य-कारण की अपेक्षा से इनमें कथंचित्-भेद भी है, कथंचित् - अभेद भी. है, अतः, बौद्धों का प्रमाण और प्रमाणफल की एकान्त - अभेदता का सिद्धांत समुचित नहीं है । प्रमाण से प्रमाणफल कथंचित्-भिन्न और कथंचित्-अभिन्न है। उनमें एकान्त - भिन्नता या एकान्त - अभिन्नता नहीं है । इससे यह सिद्ध होता है कि हम जैनों के इस सिद्धान्त में असिद्ध - हेत्वाभास अथवा व्यभिचारी - हेत्वाभास का दोष नहीं आता है, क्योंकि अज्ञाननिवृत्ति - यह प्रमाण का अनन्तर फल है तथा हेय, ज्ञेय, उपादेय और बुद्धि का होना - यह परम्परा - फल है, अतः, प्रमाण और प्रमाणफल में कथंचित्-भेद और कथंचित् - अभेद मानना ही युक्तिसंगत 1597
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597 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 16, 17
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