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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा प्रस्तुत करने में असमर्थ हैं, तो फिर आप जैनों का सिद्धान्त असिद्ध - हेत्वाभास से ग्रसित होगा। 584 जैन जैन- दार्शनिक रत्नप्रभसूरि बौद्ध - दार्शनिकों द्वारा आरोपित किए गए इस असिद्ध - हेत्वाभास के दोष का निराकरण करने हेतु कहते हैं कि प्रमाण साधकतम कारण होने से साधन ही है, साध्य नहीं है, क्योंकि कोई भी क्रिया किसी कार्य की साधक होती है और जो क्रिया साधक होती है, उसे साधन ही कहते हैं, जैसे- छेदन की क्रिया में छुरी साधन होती है और छेदन साध्य होता है, किन्तु इसके साथ ही छेदन-क्रिया भी तो साधन होती है, इसी प्रकार से प्रमाण साधन है और अज्ञान - निवृत्ति साध्य है । प्रमाण को साधन और अज्ञान - निवृत्तिरूप प्रमाणफल को साध्य मानने पर साध्य में हेतु की वृत्ति सिद्ध होती है, अतः यहाँ सिद्ध - हेत्वाभास की संभावना नहीं है । प्रमाण और प्रमाणफल एकान्त - अभिन्न नहीं हैं, क्योंकि यदि वे एकान्त - अभिन्न हों, तो उनमें कार्य-कारण-भाव या साध्य-साधन-भाव संभव ही नहीं होगा । यदि प्रमाण और प्रमाणफल में पूर्ण रूप से तादात्म्य माना जाएगा, तो उनमें कार्य-कारण-भाव नहीं रहेगा और ऐसी स्थिति में अतिव्याप्ति-दोष होगा। 585 बौद्ध इस पर, बौद्ध - दार्शनिकों का कहना है कि एक ही वस्तु व्यावृत्ति की अपेक्षा से उभयरूप हो सकती है और इस प्रकार, प्रमाण- ज्ञान को भी व्यावृत्ति की अपेक्षा से प्रमाणरूप और प्रमाणफल रूप माना जा सकेगा, क्योंकि व्यावृत्ति की अपेक्षा से अभेदरूप मानने पर भी कार्य-कारण-भाव घटित हो सकता है। उदाहरण के रूप में, घट में अघट (पटादि) और अमृद (जलादि) की व्यावृत्ति होने पर भी घट घटरूप और मृत्तिकारूप- दोनों हो सकता है, उसी प्रकार से प्रमाण और प्रमाणफल में व्यावृत्ति की अपेक्षा से अभेद होने पर भी कार्य-कारण-भाव की अपेक्षा से भेद हो सकता है, जैसे- मृत्तिका - पिग्ड घट का कारण है और घटरूपता, अर्थात् घट कार्य है | 96 377 जैन बौद्धों के इस तर्क पर जैन- दार्शनिक रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि मिट्टी के बने घट में अघट की व्यावृत्ति से घटपना (घटत्व) और अमृद् की व्यावृत्ति से मृद्पना ( मृत्तिका रूप ) होने पर भी जो अभेद देखा जाता है, 594 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 14 595 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 14, 15 'रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 15. 16 596 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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