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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
अनन्तर या साक्षात् फल है, वह प्रमाण के साथ ही प्रकट होने से अभिन्न है- ऐसा बौद्धों का मत भी व्यभिचार-दोष से युक्त है। 2
बौद्ध - यहाँ बौद्ध अपने पक्ष में यह तर्क देते हैं कि जिस समय चित्त में प्रमाण-ज्ञान प्रकट होता है, उसी समय अज्ञान की निवृत्ति भी हो जाती है। बौद्ध-दार्शनिक अपने पक्ष की पुष्टि में कहते हैं कि जिस समय यह सर्प है, रस्सी नहीं- ऐसा प्रमाण-ज्ञान प्रकट होता है, उसी समय सर्प संबंधी अज्ञानता का निवारण भी हो जाता है, अतः, अज्ञान-निवृत्तिरूप प्रमाणफल प्रमाण के साथ अभिन्न ही है, क्योंकि ज्ञान और अज्ञाभ की निवृत्ति- दोनों एक ही काल में होती है। यदि प्रमाण और प्रमाणफल भिन्न हो, तो उन दोनों को भिन्न-भिन्न काल में होना चाहिए और यदि दोनों का काल भिन्न-भिन्न हो, तो उसमें व्यभिचार-दोष आता है।
जैन - बौद्धों के इस मंतव्य की समीक्षा करते हुए जैन-दार्शनिक रत्नप्रभसूरि लिखते हैं कि अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमाण का साक्षात् फल आदि एकान्त-अभिन्न न माना जाएगा, तो व्यभिचार-दोष आएगा- ऐसी बौद्धों की शंका उचित नहीं है, क्योंकि यह सर्प है- ऐसा प्रमाणभूत ज्ञान सर्प के अज्ञान की निवृत्तिरूप प्रमाणफल होने से कथंचित-भिन्न भी है, सर्वथा अभिन्न नहीं है, क्योंकि ज्ञान के होने और अज्ञान की निवृत्ति में कार्य-कारण-संबंध है। कार्य-कारण-संबंध होने से सर्वथा अभिन्न नहीं, अपितु वे कथंचित्-भिन्न और कथंचित्-अभिन्न हैं, क्योंकि यह सर्प हैऐसा ज्ञान प्रकट होने पर सर्प संबंधी अज्ञान की जो निवृत्ति होती है, वह कार्य है और कार्य-कारण अवश्य ही परस्पर कथंचित्-भिन्न होते हैं, जैसेकुल्हाड़ी और उसके द्वारा होने वाली छेदन-क्रिया- दोनों साधन-साध्य रूप होती हैं, किंतु वे परस्पर भिन्न होती हैं। इसी प्रकार से, प्रमाणभूत ज्ञान और प्रमाण के फलरूप अज्ञान की निवृत्ति साध्य-साधनरूप होने से दे कथंचित-भिन्न भी हैं। जैन-दार्शनिक बौद्धों से कहते हैं कि हम जैन प्रमाण और प्रमाणफल में एकान्त-भिन्नता या एकान्त–अभिन्नता नहीं मानते हैं, अपितु उनमें कथंचित्-भिन्नता और कथंचित् अभिन्नता मानते हैं।593
बौद्ध - इसके प्रत्युत्तर में, बौद्ध-दार्शनिकों का कहना है कि प्रमाण और प्रमाणफल में जो आप जैन साध्य-साधन-भाव मानते हैं, वह युक्ति से सिद्ध होना चाहिए। यदि आप इस संबंध में कोई भी युक्ति
592 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 12 593 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 13
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