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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
प्रमाण की कोटि में नहीं आ सकता। इस आधार पर प्रमाण अनिर्णयात्मक होगा, क्योंकि विषय के ज्ञान के बिना सन्निकर्ष आदि भी अज्ञानरूप ही होते हैं और जिस प्रकार अपरिचित मनुष्य के साथ चक्षु का सन्निकर्ष होने पर भी वह कौन है- ऐसा बोध नहीं होता है, उसी प्रकार मात्र स्वप्रकाशक ज्ञान से ज्ञेय का बोध ही नहीं होगा और ज्ञेय के अभाव में ज्ञान अप्रमाणरूप हो जाएगा।
दूसरे, यदि हम एकान्तरूप से ज्ञान को पर - प्रकाशक मानेंगे और स्व-प्रकाशक नहीं मानेंगे, तो भी ज्ञान ज्ञेय का बोध कराने में समर्थ नहीं रहेगा । वस्तुतः, ज्ञान न केवल स्वप्रकाशक है और न केवल पर - प्रकाशक है, अपितु स्व-पर- प्रकाशक है, अतः, ज्ञान से भिन्न ज्ञेय की सत्ता का सर्वथा निषेध भी उचित नहीं है । ज्ञेय के अभाव में ज्ञान किसका होगा ? दूसरे, ज्ञेय के अभाव में होने वाला ज्ञान मात्र स्वैर ( स्वयं की ) कल्पना होगा, जिसे प्रमाणरूप नहीं कहा जा सकता है, अतः, बाह्यार्थ की सत्ता स्वीकार करना होगी। 588
बौद्धों के प्रमाण और प्रमाणफल की एकान्त - अभिन्नता के सिद्धांत की समीक्षा
बौद्धों का पूर्वपक्ष भारतीय-दर्शन में जहाँ नैयायिक-दर्शन प्रमाण और प्रमाणफल में एकान्तभेद मानता है, वहीं सामान्यतः बौद्धदर्शन और विशेष रूप से बौद्ध-विज्ञानवाद प्रमाण और प्रमाणफल को एकान्तरूप से अभिन्न मानता है । बौद्ध-विज्ञानवादी दार्शनिकों का कथन है कि अज्ञान - निवृत्तिरूप जो प्रमाण का साक्षात् फल या अनन्तर फल है, वह प्रमाण से अभिन्न ही है । इस प्रकार,, बौद्ध - दार्शनिक जैन-दर्शन की इस मान्यता की आलोचना करते हैं कि प्रमाण और प्रमाणफल कथंचित्-भिन्न और कथंचित् - अभिन्न अर्थात् भिन्नाभिन्न है। 501
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जैन जैन- दार्शनिक रत्नप्रभसूरि का कहना है कि प्रमाण और प्रमाणफल की एकान्त - भिन्नता और एकान्त - अभिन्नता- दोनों ही साध्य के अभावरूप हेतु की वृत्ति के कारण व्यभिचार - दोष से युक्त हैं । रत्नप्रभसूरि बौद्धों की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि अज्ञाननिवृत्तिरूप जो प्रमाण का
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'रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 29 प्रमाणवार्त्तिक 2 / 320-325
रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 11, 12
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