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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
जहाँ-जहाँ अग्नि होती है, वहाँ-वहाँ धुआँ होता है, देखो पर्वत पर अग्नि है, इसलिए पर्वत पर धुआँ है, तो वह असिद्ध हेत्वाभास है, क्योंकि अग्नि की धुएँ से व्याप्ति बनती ही नहीं है । यह असिद्ध - हेत्वाभास भी दो प्रकार का है - 1. उभयासिद्ध और अन्यतरासिद्ध ।
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1. जो हेतु वादी और प्रतिवादी - दोनों को मान्य नहीं है, उसे हेतु के रूप में प्रस्तुत करना उभयासिद्ध- हेत्वाभास है, जैसे- शब्द परिणामी हैं, क्योंकि शब्द चाक्षुष हैं । यहाँ शब्द का चाक्षुषत्व दोनों को सिद्ध नहीं है, क्योंकि शब्द आँख से नहीं दिखता, बल्कि कान से सुनाई देता है, अतः, यह हेतु उभयासिद्ध है, क्योंकि वादी और प्रतिवादी - दोनों को मान्य नहीं 1578
2.
ऐसा हेतु जो वादी या पक्ष को तो मान्य होता है, किन्तु प्रतिवादी या विपक्ष को मान्य नहीं होता है, उसे अन्यतरासिद्ध- हेत्वाभास कहते है, जैसे- वृक्ष अचेतन है, क्योंकि वह ऐन्द्रिक - ज्ञान से रहित है, ऐसा हेतु वादी (पक्ष) अर्थात् जैनों को तो मान्य या सिद्ध है; किन्तु प्रतिवादी (विपक्ष) अर्थात् बौद्धों को मान्य सिद्ध नहीं है। जैन वृक्ष को चेतन मानते हैं, इसलिए वे वृक्ष में ऐन्द्रिक - ज्ञान का होना स्वीकार करते हैं, अतः, केवल प्रतिवादी बौद्धों को अमान्य या असिद्ध होने के कारण यह अन्यतरासिद्ध- हेत्वाभास है। 57
जैन असिद्ध - हेत्वाभास के उभयासिद्ध और अन्यतरासिद्ध- इन दो भेदों को ही स्वीकार करते हैं, जबकि नैयायिक, सांख्य आदि अन्य दार्शनिक असिद्ध- हेत्वाभास के स्वरूप- असिद्ध, व्याप्यत्व-असिद्ध, आश्रय-असिद्ध आदि अन्य भेद ही स्वीकार करते हैं; किन्तु जैन- दार्शनिकों का कहना है कि ये सभी भेद उभय- असिद्ध और अन्यतरा - असिद्ध में समाहित हो जाते हैं; किन्तु बौद्ध - दार्शनिक असिद्ध हेत्वाभास के निम्न अन्य भेद भी स्वीकार करते हैं- 508
1. स्वरूप - असिद्ध
2. विरुद्ध - असिद्ध
3. विशेष्य- असिद्ध
576 'रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 53 577 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 54 578 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 54
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