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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
निश्चितान्यथानुपपत्ति- यही एकमात्र सद्हेतु का लक्षण है। उनके अनुसार, जब हेतु निश्चितान्यथानुपपत्तिरूप न होकर भी हेतु जैसा आभासित होता हो तो जैन उसको हेत्वाभास कहते हैं। वह हेत्वाभास तीन प्रकार का है1. असिद्ध 2. विरुद्ध और 3. अनेकान्तिक, 573 जिसका वर्णन ग्रन्थकार रत्नप्रभसूरि क्रमश: निम्न प्रकार से करते हैं
1. निश्चितान्यथानुपपत्ति- यह सद्हेतु का लक्षण है, किन्तु यह निश्चितान्यथानुपपत्ति साध्य के साथ हेतु की होना चाहिए, किन्तु यदि यह निश्चितान्यथानुपपत्ति साध्य के साथ न होकर उससे विपरीत किसी अन्य के साथ हो, तो उसको विरुद्ध हेत्वाभास कहते हैं, अर्थात् साध्य से विपरीत किसी अन्य के साथ जिसकी व्याप्ति निश्चित हो, वह विरुद्ध - हेत्वाभास कहलाता है। 574
2. साध्य के साथ हेतु की निश्चित रूप से अन्यथानुपपत्ति होना चाहिए, किन्तु उसके स्थान पर वह अन्यथानुपपत्ति साध्य के साथ भी हो तथा साध्य से इतर किसी अन्य के साथ भी हो, तो ऐसी अनिश्चित रूप वाली अन्यथानुपपत्ति से अनेकान्तिक - हेत्वाभास का उद्भव होता है, अर्थात् जिस हेतु की अन्यथानुपपत्ति (व्याप्ति) में संदेह हो, वह अनेकान्तिक- हेत्वाभास कहलाता है। 575
असिद्ध - हेत्वाभास की जैन दर्शन की समीक्षा का बौद्धों का प्रत्युत्तर
जो हेतु, वादी और प्रतिवादी - दोनों को ही सिद्ध अर्थात् मान्य नहीं होता है, उसको असिद्ध - हेत्वाभास कहते हैं। जब हेतु की अन्यथानुपपत्ति पक्ष में प्रतीत नहीं होती हो, अर्थात् अप्रतीत होती हो, तो वह असिद्ध - हेत्वाभास होता है। असिद्ध - हेत्वाभास में पक्ष में हेतु की अन्यथानुपपत्ति की जो अप्रतीति होती है, वह अज्ञान से, संदेह से, अथवा विपर्यय से होती है। असिद्ध हेत्वाभास का एक तात्पर्य यह भी हो सकता है- हेतु और साध्य में जो व्याप्ति-संबंध होना चाहिए, किन्तु जिसका साध्य से व्याप्ति-संबंध न हो- ऐसे हेतु के द्वारा साध्य को सिद्ध करने के प्रयास को असिद्ध - हेत्वाभास कहते हैं, जैसे- जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती है, इसमें तो व्याप्ति-संबंध है, किन्तु यदि कोई यह कहे कि
573 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 52
574 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 52 575 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 52, 53
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