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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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फिर भी इसमें प्रमाण-स्वरूप तथा प्रत्यक्ष और अनुमान-प्रमाण की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती है। हेमचंद्र ने प्रमाण की परिभाषा देते हुए 'सम्यक ज्ञानं प्रमाणं कहकर यद्यपि बौद्धों के समान ही ज्ञान को ही प्रमाण रूप माना है, किंतु उन्होंने यह भी बताया है कि बौद्धों का प्रत्यक्ष निर्विकल्प होने से निश्चायक नहीं होता, अतः, वह प्रमाणरूप नहीं हो सकता है। दूसरे, ज्ञान बिना ज्ञेय संभव नहीं है, अतः, बौद्धों का विज्ञानवाद ही एक समुचित सिद्धांत नहीं माना जा सकता। अनुमान-प्रमाण की चर्चा के प्रसंग में उन्होंने बौद्धों के विलक्षण हेतु का भी खंडन किया है। इस प्रकार, हेमचंद्र के इन दोनों ग्रन्थों में हमें बौद्धदर्शन की समीक्षा उपलब्ध हो जाती है। हेमचंद्र के ये दोनों ग्रन्थ रत्नाकरावतारिका के समकालिक हैं, फिर भी हेमचन्द्र ने रत्नाकरावतारिका का कहीं अनुसरण किया हो- ऐसा स्पष्ट रूप से ज्ञात नहीं होता है। 11. मल्लिषेणकृत स्याद्वादमंजरी नामक टीका में बौद्धदर्शन की समीक्षा
जैसा कि हम पूर्व में सूचित कर चुके हैं कि आचार्य हेमचंद्रकृत अन्ययोगव्यवच्छेदिका नामक द्वात्रिंशिका में बौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद एवं प्रमाण और प्रमाणफल की एकात्मकता आदि की समालोचना उपलब्ध होती है। मल्लिषेण ने इसी अन्ययोगव्यवच्छेदिका के ऊपर स्याद्वादमंजरी नामक टीका लिखी है। यद्यपि स्याद्वादमंजरी मूलतः तो एक टीका ग्रंथ है, किन्तु जैन-परंपरा में इसकी महत्ता एक स्वतंत्र ग्रंथ से कम नहीं मानी जाती है। आचार्य मल्लिषेण ने अन्ययोगव्यवच्छेदिका में बौद्धों के क्षणिकवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद आदि जिन-जिन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा की थी, उन्हीं पर पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष- दोनों को प्रस्तुत करते हुए विस्तृत समीक्षा लिखी है। इसमें बौद्धों के मूल ग्रन्थों के अनेक सन्दर्भ भी दिए गए हैं और बौद्ध-दार्शनिक धर्मोत्तर के नाम का भी उल्लेख है। यह टीका ही स्याद्वादमंजरी के नाम से जानी जाती है। चूंकि अन्ययोगव्यवच्छेदिका में बौद्धों के क्षणिकवाद की समीक्षा की गई है और उसके विरुद्ध पाँच हेतु प्रस्तुत किए गए हैं, जिनका उल्लेख हम पूर्व में कर चुके हैं, अतः, मल्लिषेण ने इन्हीं पाँच दोषों को लेकर बौद्धदर्शन के क्षणिकवाद और संततिवाद की समीक्षा प्रस्तुत की है। बौद्ध-दार्शनिक क्षणिकवाद पर आने वाले दोषों के निराकरण के रूप में संततिवाद को प्रस्तुत करते हैं, अतः, मल्लिषेण के लिए यह आवश्यक था कि वे क्षणिकवाद के साथ-साथ संततिवाद की भी समालोचना प्रस्तुत करें। इसी
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