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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा 9. प्रभाचंद्रकृत प्रमेयकमलमार्तण्ड में बौद्धदर्शन की समीक्षा -
जैन-दर्शन के प्रौढ़-ग्रन्थों में प्रभाचंद का प्रमेयकमलमार्तण्ड एक प्रमुख ग्रन्थ है। प्रमेयकमलमार्तण्ड मूलतः प्रमेय के स्वरूप को लेकर चर्चा करता है, किन्तु इस ग्रंथ में प्रमेय के संदर्भ में, अर्थात् ज्ञान के विषय के संदर्भ में बौद्धों की मान्यताओं की समीक्षा की गई है। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से बौद्धों के क्षणिकवाद, शून्यवाद, अन्याअपोहवाद तथा विज्ञानवादइन सभी मतों की समीक्षा उपलब्ध हो जाती है। जैसा कि हमने प्रारंभ में कहा है, यह ग्रंथ जैन-दर्शन का प्रौढ़ ग्रंथ है, अतः, मूल ग्रंथ में ही बौद्धों के पूर्व-पक्ष के प्रतिपादन के साथ उसकी विस्तृत समीक्षा इस ग्रंथ में उपलब्ध थी आप्त-मीमांसा की टीकाओं के अतिरिक्त यदि किसी ग्रंथ में बौद्धदर्शन की विस्तृत समीक्षा उपलब्ध है, तो उनमें प्रमेयकमलमार्तण्ड का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। इस ग्रंथ का रचनाकाल लगभग ग्यारहवीं शताब्दी है, इसलिए इसमें बौद्धदर्शन और बौद्ध-न्याय के संदर्भ में धर्मकीर्ति और धर्मोत्तर अर्चट आदि के मतों की विस्तृत चर्चा उपलब्ध होती
10. हेमचंद्रकृत अन्ययोगव्यवच्छेदिका तथा प्रमाण-मीमांसा में बौद्ध-मतों की समीक्षा -
आचार्य हेमचंद्र जैनधर्म-दर्शन के श्वेताम्बर-परंपरा में हए प्रमुख विद्वानों में गिने जाते हैं। इनका काल लगभग ईसा की बारहवीं शताब्दी है। वैसे तो हेमचंद्र ने प्राकृत और संस्कृत-व्याकरण के संदर्भ में विशेष रूप से लिखा है, किंतु दर्शन के क्षेत्र में उनके दो ग्रन्थ मुख्य हैं - 1. अन्ययोगव्यवच्छेदिका और 2. प्रमाणमीमांसा। यहाँ यह भी ज्ञातव्य है कि जहाँ अन्ययोगव्यवच्छेदिका मूलतः एक संक्षिप्त ग्रंथ है। इसमें मात्र 32 कारिकायें हैं, किंतु संक्षिप्त ग्रंथ होते हुए भी इसमें बौद्धदर्शन के एकान्त क्षणिकवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद आदि की संक्षिप्त किंतु गंभीर समीक्षा की गई है। अन्ययोगव्यवच्छेदिका में बौद्धों के क्षणिकवाद की समीक्षा में कहा गया है कि यदि वस्तु या सत्ता क्षणिक है, तो फिर उसमें कृतप्रणाश, अकृत-भोग, स्मृति-भंग, भव-भंग और मोक्ष-भंग- ऐसे पाँच दोष बताए गए हैं। मल्लिषेण ने स्याद्वादमंजरी नामक टीका में इन पाँच दोषों पर विस्तार से टीका लिखी है।
हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा जैन-न्याय का एक प्रमुख ग्रंथ हैं। यद्यपि हेमचंद्र इस ग्रंथ को और उसकी स्वोपज्ञ टीका को पूर्ण नहीं कर सके,
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