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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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अध्याय-15 पक्षाभास एवं हेत्वाभास के संबंध में
बौद्ध-मन्तव्यों की समीक्षा
बौद्धों का पूर्वपक्ष - बौद्ध-दार्शनिकों ने अप्रसिद्ध विशेषण, अप्रसिद्ध विशेष्य और अप्रसिद्ध उभय- इन तीनों को पक्षाभास के रूप में स्वीकार किया है; किन्तु जैनों की दृष्टि में उनकी यह मान्यता युक्तिसंगत नहीं है।
जैन - जैनों का कहना है कि अप्रसिद्ध विशेषण को सिद्ध करना तो उचित माना जा सकता है; किन्तु जो स्वयं प्रसिद्ध (सिद्ध) है, उसको सिद्ध करने का कोई औचित्य ही नहीं रहता है। यदि प्रसिद्ध को सिद्ध किया जाएगा, तो सिद्ध-साध्यता नाम का दोष उत्पन्न होगा। चाहे पर्वत पर अग्नि हो या न हो, किन्तु यह अनुभवसिद्ध है कि अग्नि में उष्णता नामक गुण-धर्म रहा हुआ है, अतः, अग्नि उष्ण होती है, इसको सिद्ध करने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहती है, इसलिए ऐसे पक्षाभास का कथन करना युक्तिसंगत नहीं है।
बौद्ध - इस पर बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि आप जैनों ने हमारे कथन को समझने का प्रयत्न ही नहीं किया है। हमारा कथन तो यह है कि अग्नि की विद्यमानता या अविद्यमानता पर्वत में प्रसिद्ध नहीं है। भले ही, पक्ष (पर्वत) में अग्नि अप्रसिद्ध हो, परन्तु जगत् में अग्नि तो सर्वत्र प्रसिद्ध ही है और मात्र विवक्षित स्थान पर जो अप्रसिद्ध हो- ऐसे साध्य को सिद्ध करने को हम पक्षाभास नहीं कहते हैं; अपितु संसार में पक्ष, सपक्ष और विपक्ष- इन तीनों स्थानों में जो अप्रसिद्ध होता है, उसे हम पक्षाभास कहते हैं। तात्पर्य यह है कि साध्य को सिद्ध करने के तीन स्थान ही होते हैंपक्ष, सपक्ष और विपक्ष। विपक्ष में साध्य के अविद्यमान होने से तथा पक्ष में संदेह होने से तथा अन्वयव्याप्ति में सपक्ष का उदाहरण नहीं मिलने से
558 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 50
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