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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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मानकर सांख्य और बौद्ध स्याद्वाद को स्वीकार नहीं करते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि जहाँ अंधकार होगा, वहाँ प्रकाश नहीं होगा और जहाँ प्रकाश होगा, वहाँ अंधकार नहीं होगा। प्रकाश और अंधकार को एकत्र (एक साथ) मानने में उन्हें परस्पर विरोध दिखाई देता है, वैसे ही वे यह भी मान लेते हैं कि जहाँ नित्य होता है, वहाँ अनित्य नहीं होता है, और जहाँ अनित्य होता है, वहाँ नित्य नहीं होता है। नित्य और अनित्य को एक साथ मानना तो "विरोध-दोष' से युक्त होता है। यही कारण है कि सांख्य और बौद्ध स्याद्वाद-सिद्धान्त को नहीं मानते हैं।
नित्यानित्य में परस्पर विरोध को देखकर स्याद्वाद या अनेकांतवाद से अप्रीति रखने वाले सांख्यों और बौद्धों को समझा सके- क्या ऐसा कोई उदाहरण जैनों के पास है, जिसमें परस्पर विरोधी गुण वाली वस्तुओं को सांख्यों या बौद्धों ने एक ही साथ स्वीकार किया हो ?'
जैन - इसका समाधान करते हुए रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि सांख्य घट-पटादि वस्तुओं को सामान्य और विशेष- ऐसे परस्पर विरोधी गुण-धर्म से युक्त मानते हैं और बौद्ध भिन्न-भिन्न अनेक वर्णों (रंगों) से युक्त पदार्थ को 'चित्र रूप में मानते हैं, अतः, उनकी इन मान्यताओं में भी स्याद्वाद के समान ही परस्पर विरोध का दोष संभव है।552
सभी गायें गोत्व-धर्म से युक्त होने से सामान्य (समान) हैं और शाबलेय तथा बाडुलेय आदि-रूप में विशेष भी हैं। इसी प्रकार, सभी घट घटत्व के रूप में सामान्य हैं तथा सोने का, चाँदी का, मिट्टी का इत्यादि की अपेक्षा से विशेष भी हैं। तात्पर्य यह है कि जगत् के सभी पदार्थ सामान्य विशेषात्मक हैं। इस प्रकार, सांख्यदर्शन वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों को स्वीकार करते हुए भी अपेक्षा-भेद के होने से उनमें परस्पर विरोधरूप दोष नहीं मानता है। उसी प्रकार, स्याद्वाद में भी द्रव्यार्थिक-नय की अपेक्षा से नित्यत्व और पर्यायार्थिक-नय की अपेक्षा से अनित्यत्व में अपेक्षा-भेद होने के कारण विरोधरूप दोष संभव नहीं है।
550 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 104 551 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 104 552 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 104 553 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 104
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