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________________ 358 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा इसी प्रकार, बौद्धों के अनुसार भी एक ही चित्र-रूप वस्तु में रहे हुए कृष्ण, नील, पीत, श्वेत आदि भिन्न-भिन्न रंगों का ज्ञान हमें होता है। तात्पर्य यह है कि बौद्धों की धारणा के अनुसार, एक ही वस्त्र में भिन्न-भिन्न रंग एक साथ रहते हैं और उनका ज्ञान भी एक ही साथ होता है, किन्तु इसमें किसी भी प्रकार का विरोधरूप दोष नहीं रहता। उपर्युक्त दोनों उदाहरणों को प्रस्तुत करने का कारण यह है कि सांख्य प्रत्येक पदार्थ को सामान्य-विशेषात्मक मानते हैं तथा बौद्ध भी विरोधी रंगों के चित्र ज्ञान को एक साथ संभव मानते हैं। इस प्रकार, दोनों दार्शनिकों ने अपेक्षा-भेद से विरोधी प्रतीत होने वाले तथ्यों का विरोध नहीं माना है। इसी को समझाने के लिए जैनों ने उपर्युक्त उदाहरण दिए हैं, ताकि वे यह मान लें कि अपेक्षा–भेद से एक वस्तु में एक ही साथ नित्यत्व अनित्यत्व आदि परस्पर-विरोधी प्रतीत होने वाले गुणधर्म रह सकते हैं और इसी आधार पर वे जैनों के अनेकांतवाद या स्याद्वाद की निर्दोषता भी समझ लें।555 क्रिया और क्रियावान् के भिन्नत्व और अभिन्नत्व का प्रश्न बौद्ध एवं वैशेषिक-पूर्वपक्ष - रत्नप्रभसूरि का कथन है कि बौद्ध-दर्शन क्रिया को क्रियावान् पदार्थ से अभिन्न मानते हैं। उनके अनुसार, क्रिया से भिन्न क्रियावान् पदार्थ और क्रियावान् पदार्थ से भिन्न क्रिया नहीं होती। इसके विपरीत, वैशेषिक दर्शन की मान्यता है कि क्रिया और क्रियावान् पदार्थ भिन्न-भिन्न हैं। दोनों के अपने-अपने तर्क हैं। रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका में इन दोनों मतों का खण्डन करके जैन-दर्शन के अनेकान्त के सिद्धांत के अनुसार क्रिया और क्रियावान् पदार्थ में कथंचित्-भिन्नत्व और कथंचित्-अभिन्नत्व माना है। जैन - सर्वप्रथम, रत्नप्रभसूरि बौद्धदर्शन के क्रिया और क्रियावान् पदार्थ के एकान्त-अभेदवाद का खण्डन करते हुए लिखते हैं कि यदि क्रिया और क्रियावान् पदार्थ अभिन्न हैं, तो फिर या तो क्रियावान् पदार्थ रहेगा या क्रिया रहेगी। पारमार्थिक दृष्टि से इनमें से किसी एक को ही स्वीकार करना होगा। ये दो हैं- ऐसा कहना संभव नहीं होगा, क्योंकि यदि 55* रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 104 555 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 104, 105 556 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 21 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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