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________________ 356 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा स्मरण और प्रत्यभिज्ञा में होने वाला ज्ञान तो भूत और वर्तमानकाल से जुड़ा हुआ होता है। पुनः, रत्नप्रभ बौद्धों से कहते हैं कि पूर्वक्षणवर्ती और उत्तरक्षणवर्ती आत्मा के मध्य द्रव्य-तत्त्व रहा हुआ है, अतः, द्रव्य की अपेक्षा से आत्मा कथंचित-नित्य है और पर्याय की अपेक्षा से पूर्वक्षणवर्ती आत्मा से उत्तरक्षणवर्ती आत्मा भिन्न हो सकती है, अतः, पर्याय की अपेक्षा से आत्मा अनित्य भी है। इस प्रकार, से, नित्यानित्य अर्थात् परिणामी-नित्य आत्मा में स्मरण और प्रत्यभिज्ञा आदि निर्दोष रूप से घटित हो सकते हैं, किन्तु ऐसा मानने पर आप बौद्धों का एकान्त-क्षणिकवाद तो खण्डित हो जाता है, क्योंकि एकान्त-अनित्य नामक साध्य को साधने में जिस हेतु का प्रयोग किया है, वह हेतु एकान्त-अनित्यत्व नामक साध्य के साथ घटित न होकर साध्याभावात्मक- ऐसे परिणामी-नित्य (आत्मा) के साथ व्याप्त रूप से रहता है, इसलिए बौद्धों को भी यह हेतु विरुद्ध-हेत्वाभास के रूप में मानना होगा उपर्युक्त कथन का फलितार्थ यह है कि रत्नप्रभ रत्नाकरावतारिका में लिखते हैं- आत्मा को एकान्त-नित्य मानने में और एकान्त-अनित्य मानने में दोनों स्थितियों में स्मरण और प्रत्यभिज्ञान संभव नहीं होंगे। सांख्य के एकान्त-नित्य की सिद्धि में और बौद्धों के एकान्त-अनित्य की सिद्धि में जो हेतु दिए हैं, वे दोनों विरुद्ध-हेत्वाभास से ग्रस्त हैं, क्योंकि उनके एकान्त-नित्य और एकान्त-अनित्य- ऐसे साध्य से सर्वथा विपरीत ऐसे परिणामी-पुरुष में ही स्मरण और प्रत्यभिज्ञा संभव है। इससे यही सिद्ध होता है कि स्याद्वाद (अनेकान्त) मानने में किसी भी प्रकार का दोष उत्पन्न नहीं होता है, किन्तु एकान्त-नित्यवाद अथवा एकान्त-अनित्यवाद मानने में विरुद्ध-हेत्वाभासरूप दोष उत्पन्न होता है, इस कथन को सांख्य और बौद्ध-दार्शनिक क्यों नहीं समझते ? वस्तुतः, स्याद्वाद के विरोधियों ने स्याद्वाद को परस्पर विरोधी दिखाकर गलत तरीके से प्रस्तुत किया है। नित्य-अनित्य में 'विरोध' को 546 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 103 547 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 103 548 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 103 549 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 103, 104 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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