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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
355 में अपने विरोधी “परिणामी नित्य' पुरुष के साथ ही व्याप्त है, जैसे- जो आत्मा अत्यन्त उच्छेदधर्मी ही हो, इसलिए कि एकान्त-अनित्य अर्थात् क्षणमात्रवर्ती ही हो, तो प्रत्येक क्षण में भिन्न-भिन्न आत्मा होने से जिसने पूर्व में अनुभव किया है, वह आत्मा तो स्मरणकाल में नहीं है। जिस प्रकार चैत्र का अनुभव मैत्र के स्मरण में नहीं आता है, वैसे ही दोनों समयों की आत्मा अत्यन्त भिन्न होने से प्रत्यभिज्ञा और स्मरण आदि तो घटित ही नहीं हो सकते हैं।
बौद्ध - इस पर, बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि जिस प्रकार चैत्र और मैत्र- दोनों अत्यन्त भिन्न व्यक्ति हैं, उसी प्रकार प्रतिक्षण परिवर्तित होने वाली आत्मा भी दो भिन्न क्षणों में भिन्न-भिन्न होती है, किन्तु एक सन्तानवर्ती (एकधारा प्रवाही) होने से चैत्र और मैत्र में स्मरण और प्रत्यभिज्ञान संभव हो सकते हैं।
जैन - इस पर जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों से कहते हैं कि एक संतानवर्ती होने से चैत्र और मैत्र में स्मरण और प्रत्यभिज्ञान संभव हो सकते हैं- ऐसा जो कथन आप बौद्धों ने किया है, वह समुचित नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार चैत्र के चित्त से मैत्र का चित्त अत्यन्त भिन्न है, इसलिए चैत्र द्वारा किया गया अनुभव का स्मरण और प्रत्यभिज्ञान मैत्र में संभव नहीं हो सकता, उसी प्रकार आत्मा को चाहे एक संतानवर्ती मानेंगे, तो भी स्मरण और प्रत्यभिज्ञा संभव नहीं होगी, क्योंकि आप बौद्ध तो पूर्वक्षणवर्ती और उत्तरक्षणवर्ती- दोनों को अत्यन्त भिन्न-भिन्न मानते हैं और यदि पूर्वक्षणवर्ती आत्मा से उत्तरक्षणवर्ती आत्मा अत्यन्त भिन्न है, तो दो भिन्न-भिन्न क्षणवर्ती आत्माओं में स्मरण और प्रत्यभिज्ञा कैसे घटित होंगे? यदि आत्मा को एक संतानवर्ती कहकर स्मरण और प्रत्यभिज्ञा मानेंगे, तो फिर तो आपका क्षणिकवाद खंडित हो जाएगा, क्योंकि आप तो पूर्वक्षण से उत्तरक्षण को भिन्न मानते हैं, पूर्वक्षण ने जो अनुभव किया उसका स्मरण आदि उत्तरक्षण को कैसे संभव होगा? पूर्वक्षण तो सर्वथा नष्ट हो चुका, तो उसका अनुभव भी नष्ट हो चुका, इसलिए उत्तरक्षण को जो अनुभव होगा, वह उसको अपने नवीन विषय का अनुभव होगा, अतः, स्मरण और प्रत्यभिज्ञा तक पहुँचना आपके सिद्धान्तानुसार तो संभव ही नहीं है, क्योंकि
54 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 102, 103 19 रत्नाकरावतारिका, भाग III, रत्नप्रभसूरि, पृ. 103
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