________________
352
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
ग्रहण अनस्तित्व या अभाव के रूप में ही किया है, जबकि सत्य यह है कि बौद्ध-दार्शनिक उसे भाव और अभाव- दोनों से परे मानते हैं। माध्यमिक-कारिका के प्रारंभ में ही बुद्ध की वंदना करते हुए कहा गया है कि तत्त्व न शाश्वत है, न उच्छेदरूप है, न वह एक है, न वह अनेक है, न वह नित्य है, न वह अनित्य है। इस प्रकार, यह तो स्पष्ट ही है कि शून्यवाद एकान्त-शाश्वतवाद या एकान्त-उच्छेदवाद को स्वीकार नहीं करता है। दुर्भाग्य यही रहा है कि जिस प्रकार अन्य भारतीय-दार्शनिकों ने स्याद्वाद या अनेकान्तवाद को सम्यक् प्रकार से न समझकर पागलों का प्रलाप कहा है, उसी प्रकार से बौद्धों के शून्यवाद को भी सम्यक् प्रकार से न समझकर उच्छेदवाद के अर्थ में ही ग्रहण कर लिया गया है, जबकि अनेकान्तवाद और शून्यवाद किसी अन्य स्थिति के द्योतक हैं। यह सत्य है कि स्याद्वाद और शून्यवाद- दोनों ही एकान्तवाद के निषेधक होकर अनेकान्त-दृष्टि के समर्थक हैं, फिर भी जैन-दार्शनिक इसके हेतु जहाँ सकारात्मक-भाषा का उपयोग करते हैं, वहीं बौद्ध-दार्शनिक नकारात्मक-भाषा का उपयोग करते हैं। वे केवल इतना ही कहते हैं कि सत्ता न सत है, न असत है, न उभय है, न अनुभय है, जबकि जैन-दार्शनिक सत्ता को अपेक्षाभेद से सत्, असत्, उभय और अनुभय- इन चारों पक्षों से स्वीकार करते हैं। संक्षेप में कहें, तो तत्त्व के स्वरूप के संदर्भ में बौद्ध और जैन-दोनों किसी सीमा तक साथ-साथ खड़े हुए प्रतीत होते हैं, किन्तु जैनों की सकारात्मक-भाषा और बौद्धों की नकारात्मक-भाषा उन दोनों को एक-दूसरे से विमुख बना देती है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org