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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
जिस शैली के आधार पर शून्यवादी अपने मत का प्रस्तुतिकरण करते हैं। जिस प्रकार शून्यवादी अपने पक्ष के समर्थन में यह कहते हैं कि वस्तु न सत्रूप हो सकती है, न असत्प, न उभयरूप हो सकती है, न अनुभयरूप, उसी प्रकार रत्नप्रभसूरि भी उसी शैली का आश्रय लेते हुए उसका खंडन निम्न रूप में करते हैं। वे कहते हैं कि आपका यह शून्यवाद प्रमाण से सिद्ध है ? या अप्रमाण से सिद्ध है ? या प्रमाण और अप्रमाणदोनों से सिद्ध है ? या प्रमाण और अप्रमाण- दोनों से सिद्ध नहीं है ? यदि आप यह कहते हैं कि प्रमाण से सिद्ध है, तो प्रमाण की सत्ता को स्वीकार करने से आपका शून्यवाद खंडित हो जाता है। यदि आप यह कहते हैं कि अप्रमाण से सिद्ध है, तो अप्रमाण से तो कुछ भी सिद्ध नहीं हो सकता, अतः, शून्यवाद भी सिद्ध नहीं होगा। यदि आप कहें कि प्रमाण और अप्रमाण- दोनों से ही सिद्ध है, तो आपके अनुसार ही परस्पर विरोध होगा, क्योंकि प्रमाण और अप्रमाण- दोनों परस्पर विरोधी हैं और यदि आप यह कहें कि प्रमाण और अप्रमाण- दोनों से सिद्ध नहीं है, तो इसका अर्थ तो यही हुआ कि आपका शून्यवाद दोनों से सिद्ध नहीं है । इस प्रकार, हम देखते हैं कि जहाँ-जहाँ शून्यवादियों ने उभयतोपाश खड़ा करके जैनों का खंडन किया है और शून्यवाद को पुष्ट करने का प्रयत्न किया है, वहाँ-वहाँ रत्नप्रभसूरि ने भी उस उभयतोपाश को निरस्त करने के लिए उसका विरोधी उभयतोपाश खड़ा करके शून्यवाद का खंडन कर दिया है। इस प्रकार, हम देखते हैं कि शून्यवादी अपने पक्ष को सिद्ध करने में जिस उभयतोपाश को उपस्थित करते हैं, उसके ठीक विरोधी उभयतोपाश को प्रस्तुत करके रत्नप्रभसूरि उसका खंडन कर देते हैं। इससे यह फलित होता है कि रत्नप्रभसूरि बौद्धों के सिद्धांतों की समीक्षा के लिए उसी शैली का अनुसरण करते हैं, जो शैली बौद्ध - दार्शनिक अपने पक्ष की पुष्टि के लिए प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार, सिद्धांतगत विरोध होते हुए भी दोनों में शैलीगत समानता प्रतीत होती है।
पुनः, जैसा हमने पूर्व में संकेत किया था कि प्रायः सभी भारतीय - दार्शनिक शून्यवाद की समीक्षा करते हुए उसे अभावरूप मानकर ही समीक्षा करते हैं, जबकि शून्यवाद में शून्यता शब्द अनस्तित्व या अभाव का सूचक न होकर भाव, अभाव, उभय और अनुभय- इन चारों कोटियों से रहित माना गया है। हमें यह स्वीकार करने में कोई भी आपत्ति नहीं है कि जिस प्रकार अन्य भारतीय दार्शनिकों ने शून्यता का अर्थ अभाव या अस्तित्व का निषेध माना है, उसी प्रकार रत्नप्रभसूरि ने भी शून्यता का
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