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________________ 350 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा इसीलिए भगवान् बुद्ध ने भी कहा था- मैं न तो शाश्वतवाद को मानता हूँ, न उच्छेदवाद को। सत्ता न तो शाश्वत है और न उच्छिन्न। वस्तुतः, वह क्या है और कैसी है, इसे किसी एक दृष्टि के आधार पर व्यक्त करना संभव नहीं है, इसीलिए शून्यवादियों का कहना है कि हम तो इस संदर्भ में मध्यम-मार्ग का अनुसरण करते हैं और यह मानते हैं कि सत्ता अस्तित्व, नास्तित्व, उभय और अनुभय- इन चारों कोटियों से परे है। इस प्रकार, शून्यवाद सभी एकान्त-दृष्टियों का निषेध करता है। एकान्तिक-दृष्टियों का निषेध ही शून्यवाद का मूल उत्स (सार तत्त्व) है। शून्यवादी दार्शनिक भी जैनों के समान ही एकान्तवाद के विरोधी हैं, फिर भी जैन-दर्शन और शून्यवाद में यह अन्तर है कि जैन-दार्शनिक सत्ता के सत्, असत्, उभय और अनुभय- इन चारों पक्षों को स्वीकार करते हैं, जबकि शून्यवादी इन चारों पक्षों का निषेध करते हैं। शून्यवाद कहता है कि परम-तत्त्व न सत् है, न असत् है, न उभय है, न अनुभय है।" इसके विपरीत, जैन--दर्शन सत्ता को सत्, असत्, उभय और अनुभय-इन चारों रूपों में स्वीकार करता है। वस्तुतः, निषेधात्मक-भाषा के प्रयोग के कारण बौद्धदर्शन का चरम विकास शून्यवाद के रूप में हुआ, तो विधानात्मक-भाषा को महत्व देने के कारण जैन-दर्शन का विकास अनेकान्तवाद या स्याद्वाद के रूप में हुआ। संक्षेप में कहें, तो जहाँ शून्यवाद सत्ता को चतुष्कोटि- विनिर्मुक्त कहता है, वहीं जैन-दर्शन सत्ता को चतुष्कोटि या सत्व-कोटि से युक्त मानता है। अग्रिम पृष्ठों में हम यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि रत्नप्रभसरि ने रत्नाकरावतारिका में शून्यवाद को किस रूप में प्रस्तुत कर उसकी समीक्षा की है। निष्कर्ष - इस प्रकार, हम देखते हैं कि रत्नप्रभसूरि ने रत्नाकरावतारिका में बौद्धों के शून्यवाद का प्रस्तुतिकरण और उसकी समीक्षा विस्तार से की है। उन्होंने इस तथ्य को भी ध्यान में रखा है कि शून्यवादी अपने पक्ष के समर्थन में किस-किस प्रकार के तर्क उपस्थित कर सकते हैं, उनको भी प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है, किन्तु यदि हम गहराई से चिंतन करें, तो रत्नप्रभसूरि ने शून्यवाद के खंडन के लिए उसी शैली का सहारा लिया है, 541 देखें - भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ. 683 अतो भावाभावान्तद्वयरहितत्वात् सत् स्वभावानुत्यत्ति लक्षणा शून्यता मध्यमा प्रतिपत् मध्यमो मार्ग इत्युच्यते। - चन्द्रकीर्ति प्रसन्नपदा।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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