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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
सम्प्रदाय का कहना है कि यदि बाह्यार्थ की सत्ता मात्र अनुमेय है, तो उसको यथार्थ कैसे माना जा सकता है ? अतः वे बाह्यार्थ की सत्ता को निषेध कर चित्त और चैतसिक की सत्ता को ही स्वीकार करते हैं, जिसका समग्र नाम विज्ञान है। विज्ञानवाद के अनुसार, विज्ञान ही परमार्थ सत् है । विज्ञानवाद के पश्चात् उदभूत शून्यवाद या माध्यमिक- दर्शन तो उससे भी एक कदम आगे बढ़कर यह कहता है कि वस्तुसत् तो निःस्वभाव है, क्योंकि वह सापेक्ष है और क्षणिक है। जो सापेक्ष और क्षणिक हो, उसे न सत् कहा जा सकता है और न असत् कहा जा सकता है, इसलिए माध्यमिक- दर्शन के अनुसार जो सत्, असत् उभय और अनुभय- इन चारों कोटियों से रहित है, उसे शून्य के अलावा क्या कहा जा सकता है ? माध्यमिक - दर्शन या शून्यवाद का कहना यही है कि क्षणिक और सापेक्ष - सत्ता को सत्, असत् उभय या अनुभय- इन चारों कोटियों में नहीं बाँधा जा सकता है । इस प्रकार, बौद्धदर्शन की विकास-यात्रा वैभाषिकों से प्रारंभ होकर शून्यवाद में अपनी चरम स्थिति को प्राप्त होती है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अन्य दार्शनिकों ने शून्यता के अर्थ को यथार्थ रूप में न समझकर उसे मात्र अभाव के रूप में देखा है और यही कारण है कि शून्यता की जो भी समीक्षाएँ की गई हैं, वे केवल सत्ता का निषेध मानकर ही की गई हैं, जबकि वास्तविकता इससे भी भिन्न है, इसलिए सर्वप्रथम यह समझ लेना आवश्यक है कि बौद्धों के अनुसार शून्य का क्या अर्थ है ? शून्यवाद का मानना है कि वस्तु के स्वरूप का निर्णय करने के लिए चार ही कोटियाँ होती हैं- 1. अस्ति 2. नास्ति 3. अस्ति और नास्ति (तदुभय) और 4. न अस्ति और न नास्ति ( अनुभय) । जो दर्शन परमतत्त्व को इन चारों कोटियों से परे मानता है, वही शून्यता का सूचक है। इस प्रकार,, बौद्ध दर्शन में शून्य शब्द सत्ता के निषेध का सूचक न होकर उसकी क्षणिकता और सापेक्षता का ही सूचक है। वस्तुतः शून्यवाद का विकास अस्तित्ववादी और अनस्तित्ववादी दृष्टियों की अस्वीकृति में ही होता है, 4G
539 देखें - भारतीय दर्शन, बलदेव उपध्याय, पृ. 683
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नसन् नासन् न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटि - विनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः ।। 540 देखें - भारतीय दर्शन, बलदेव उपाध्याय, पृ. 683 अस्तीति नास्तीति उभेऽपि अन्ता,
शुद्धी अशुद्धीति इमेऽपि अन्ता । तस्मादुभे अन्त विवर्जयित्वा,
मध्ये हि स्थानं प्रकरोति पण्डितः ।।
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माध्यमिककारिका 1/7
समाधिराजसूत्र
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