SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 355
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 353 अध्याय-14 आत्मा की अनित्यता और क्रिया तथा क्रियावान् की अभिन्नता की समीक्षा (अ) आत्मा की अनित्यता की समीक्षा रत्नाकरावतारिका में प्रमाणनयतत्त्वालोक के छठवें परिच्छेद के 53 वें सूत्र की टीका में दो सिद्धान्तों की समीक्षा प्रस्तुत की गई है- एक, सांख्यदर्शन के कूटस्थ-आत्मवाद की और दूसरी, बौद्धदर्शन के आत्म-अनित्यतावाद की। आत्मा के संदर्भ में सांख्य-दर्शन नित्यतावादी है और बौद्धदर्शन अनित्यतावादी अर्थात् क्षणिकवादी है। सांख्य एवं बौद्धों के पूर्वपक्ष - सांख्यदर्शन आत्मा को नित्य मानता है। उसकी अवधारणा है कि प्रत्यभिज्ञा और स्मरणादि जो होते हैं, वह अनुभवावस्था में भी और स्मरणावस्था में भी एक ही नित्य आत्मा में होते हैं। अनुभवावस्था और स्मरणावस्था में दो भिन्न-भिन्न आत्माएं नहीं होती हैं। एक ही आत्मा अनुभव भी करती है और कालान्तर में उसका स्मरण भी, किन्तु बौद्ध-दार्शनिक आत्मा को अनित्य मानते हैं। उनकी अवधारणा यह है कि अनुभवावस्था और स्मरणावस्था- दोनों अवस्थाओं में आत्मा एकरूप या नित्य कैसे रहेगी ? क्योंकि दोनों अवस्थाएँ भिन्न-भिन्न हैं। किसी भी पदार्थ का अनुभव करना भिन्न विषय है और उसकी स्मृति होना भिन्न विषय है। अनुभव करने वाली आत्मा भिन्न है तथा स्मरण करने वाली आत्मा भिन्न है। अनुभवावस्था और स्मरणावस्था- ये दोनों अवस्थाएँ भिन्न-भिन्न होने से दोनों अवस्थाओं में चेतना की स्थिति भिन्न-भिन्न होती है, उसमें प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता है और इसी प्रतिक्षण परिवर्तनशील अनित्य-आत्मा में स्मरण, प्रत्यभिज्ञादि प्रमाण संभव हो सकते हैं। प्रत्यभिज्ञा, अर्थात 'यह वही है- यह स्मरणयुक्त अनुभवावस्था है। चित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy