SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 345
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 343 समय में हो जाना चाहिए। यदि दूसरा पक्ष, अर्थात् उनका समकाल में होना न मानकर भिन्न काल में होना मानते हैं, तो यह भी संभव नहीं है। इससे तो यह सिद्ध होगा कि आप ज्ञान को अलग वस्तु मानते हैं और ज्ञेय पदार्थ को अलग वस्तु मानते हैं, यह सिद्धांत भी उचित नहीं है। यदि आप दोनों को भिन्न काल में ही मानते हैं, तो यह बताएँ कि ज्ञान- 1. निराकार है ? 2. साकार है ? यदि ज्ञान को निराकाररूप मानेंगे, तो वह निर्विषय ळोगा, क्योंकि निर्विषय का कोई आकार तो नहीं होता है, किन्त यह निर्विषय ज्ञान का विषय कैसे बनेगा? यदि ज्ञान को साकार मानते हैं, तो यह बताएँ कि वह आकार ज्ञान से- 1. भिन्न है या 2. अभिन्न है ? प्रथमतः, ज्ञान से भिन्न कोई आकार सिद्ध नहीं होता है, क्योंकि प्रत्येक पदार्थ का कोई न कोई आकार तो होगा ही। पदार्थ आकारयुक्त ही होता है और उसका वह आकार ही ज्ञान का विषय होता है, अतः, आप पदार्थ को ज्ञान से भिन्न नहीं कह सकते हैं। पुनः, यदि ज्ञान का आकार ज्ञान से भिन्न है- ऐसा मानते हैं, तो फिर यह बताएं कि ज्ञान का वह आकार- 1. चितरूप है ? या 2. अचित्ररूप है? यदि चित्रूप मानेंगे, तो वह चित्प आकार भी ज्ञान के समान वेदक (जानने वाला). अर्थात् ज्ञाता बन जाएगा, अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय भिन्न-भिन्न नहीं होंगे। दूसरे शब्दों में, ज्ञान ही ज्ञाता होगा। यदि अचिद्रूप आकार मानेंगे, तो वह अचित् आकार अज्ञानरूप होगा और ऐसा अज्ञानरूप आकार- 1. स्वयं ही अज्ञात होगा। पुनः, यह प्रश्न उठेगा कि ऐसा आकार- 1. अर्थ, अर्थात् पदार्थ का ज्ञाता है ? या 2. स्वयं का ज्ञाता होकर अर्थ का ज्ञापक है, अर्थात अर्थ को प्रकट करने वाला है ? इस प्रकार, से, पुनः-पुनः इन्हीं विकल्पों की पुनरावृत्ति होने से अनवस्था-दोष आ जाएगा। इस प्रकार, शून्यवादी यह सिद्ध करते हैं कि परमार्थतः अर्थात निरपेक्षतः न कोई ज्ञान है, न ज्ञाता है और न कोई ज्ञान का विषय है, अतः, पदार्थ की भी कोई निरपेक्ष स्वतंत्र सत्ता नहीं है, सब कुछ शून्य ही है, इसालए 'सर्वशून्यता- यही एक परमतत्त्व है। जैन - रत्नाकरावतारिका के रचयिता जैन-दार्शनिक आचार्य रत्नप्रभसूरि शून्यवादी दार्शनिकों के पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत इन समस्त तों की समीक्षा (आलोचना) करते हुए कहते हैं कि सर्व-अपलापी शून्यवादी बौद्धों के ये समस्त तर्क उस निस्सार भूसे के ढेर के समान हैं, जिसे अग्नि का मात्र एक कण ही समाप्त कर देता है। रत्नप्रभसूरि कहते 527 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 87 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy