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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
पुनः शून्यवादी अपने पक्ष के समर्थन में कहते हैं कि यदि स्थूलावयवी अपने किसी एक अवयव में- 1. सम्पूर्ण रूप से व्याप्त होकर रहता है- ऐसा मानेंगे, तो वह एक ही अवयव में व्याप्त होकर समाप्त हो जाएगा, तो फिर तो अनेक अवयवों में, अर्थात् दूसरे अन्य अवयवों में तो रह ही नहीं पाएगा। दूसरे, स्थूल अवयवी - 1. अवयव के एक देश में भी नहीं रह सकता है, क्योंकि आप (जैन) तो अवयवी को निरंश अर्थात् अखण्ड मानते हैं, तो फिर उसमें विरोध उत्पन्न होगा और यदि स्थूल अवयवी को निरंश न मानकर सांय मानें, तो फिर नया प्रश्न उत्पन्न होता है कि वे अंश अवयव से - 1. भिन्न हैं ? या 2. अभिन्न हैं ? यदि भिन्न मानेंगे, तो वे आंशिक - अवयवी पुनः उन्हीं अवयवों में- 1. सम्पूर्ण रूप से व्याप्त हो जाते हैं? या 2. एक देश से व्याप्त होते हैं ? इस प्रकार से, उन्हीं प्रश्नों की पुनः - पुनः पुनरावृत्ति होने से अनवस्था - दोष उत्पन्न हो जाएगा। यदि उन अंशों को अवयव से अभिन्न मानेंगे, तो फिर अवयव के अंश ही कैसे होंगे? अर्थात् अवयवी अंश से अभिन्न भी नहीं हैं- ऐसा मानना होगा । यदि तदुभय पक्ष मानें, तो वह भी परस्पर विरोधयुक्त होने से शशकश्रृंगवत् असत् होने से खंडित हो जाता है। 525
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अनुभय पक्ष भी सिद्ध नहीं होता, क्योंकि परमाणु और स्थूल पदार्थ परस्पर एक-दूसरे के निषेधक होने से अभावरूप होंगे। एक-दूसरे का निषेध करने से वे दोनों ही असत् सिद्ध होंगे, अतः, अनुभय पक्ष की भी सिद्धि नहीं होगी । इस प्रकार, शून्यवादी कहते हैं कि ज्ञान के विषय अर्थात् पदार्थ की कोई सत्ता सिद्ध नहीं होती है। जब ज्ञान का विषय, जो पदार्थ है, वही सिद्ध नहीं होता है, ज्ञाता (प्रमाता), अर्थात् उस विषय को जानने वाला अर्थात् ज्ञायक आत्मा भी कैसे सिद्ध होगा, अर्थात् दोनों ही असिद्ध हैं 526
पुनः, शून्यवादी अपने पक्ष की सिद्धि हेतु आचार्य रत्नप्रभ से यह प्रश्न करते हैं कि आप ज्ञान को और ज्ञान के विषय अर्थात् पदार्थ को - 1. समकाल में मानते हैं या 2. भिन्न काल में मानते हैं ? यदि आप प्रथम प्रश्न के पक्ष में उत्तर देते हैं कि ज्ञान और ज्ञान के विषय समकाल में होते हैं, अर्थ एक साथ और एक समय में ही होते हैं, तो फिर तो तीनों लोक हुए समग्र पदार्थो का बोध समान रूप से एक साथ और एक ही
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रत्नःकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 86
रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि पृ. 87
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