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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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भी उचित नहीं है, क्योंकि यह तो शशकश्रंग जैसी कल्पना होगी। यदि तीसरा पक्ष सत्-असत् (उभय) रूप परमाणु ही स्वयं का कार्य करता हैयह मानें, तो इस पक्ष में दोनों में परस्पर विरोध का प्रसंग आएगा, क्योंकि जो परमाणु सत् होगा, वह असत् कैसे बन सकेगा और जो असत् होगा, वह सत् नहीं बन सकेगा। चौथा पक्ष, अनुभयरूप भी उचित नहीं है, क्योंकि विधि और प्रतिषेध (निषेध)- दोनों में से किसी एक के प्रतिषेध से दूसरे की अवश्य सिद्धि होती है, इस पर सूक्ष्म दृष्टि से विचार करें, तो अणु (परमाणु) की क्षणिकता की सिद्धि नहीं हो सकती।
बौद्ध - शून्यवादी पुनश्च अपने पक्ष की पुष्टि हेतु आचार्य रत्नप्रभसूरि से प्रश्न करते हैं- क्या आप परमाणु को क्रियाशील मानते हैं ? या अक्रियाशील मानते हैं ? यदि क्रियाशील मानते हैं, तो क्रियाशीलता का काल भी स्थायी भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि क्षणिक परमाणु की क्रियाशीलता का काल स्थायी नहीं हो सकता है। पुनः, यदि यह बताएँ कि क्रियाशीलता के काल में नित्य-परमाणु 1. अर्थक्रियारहित होते हैं या 2. अर्थक्रियाकारी होते हैं ? यदि अर्थक्रियारहित मानते हैं, तो आकाश के फूल की सुगंध के समान उनकी असदुपता की आपत्ति आएगी। यदि अर्थक्रियाकारी मानते हैं, तो पुनः यह प्रश्न उपस्थित होता है कि वे परमाणु 1. असत्प ता से कार्य करते हैं? या 2. सत्प से कार्य करते हैं ? या 3. उभयरूप से कार्य करते हैं ? या 4. अनुभयरूप से कार्य करते हैं ? 1. यदि असत्रूप से कार्य करते हैं, तो फिर असत् शशकश्रंग कार्य करने में समर्थ क्यों नहीं होता है ? 2. यदि परमाणु अपने सतप से कार्य को करते हैं- ऐसा मानें, तो वे सत्रूप से कौनसा कार्य करते हैं ? क्या वे सत्प परमाणु उन्हीं सत्कार्यों को सदैव करते रहते हैं ? या फिर जिस कार्य को करते हैं, उसमें विराम देते हैं? तीसरा और चौथा विकल्प उभयरूप परमाणु या अनुभयरूप परमाणु- ये दोनों पक्ष परस्पर तिरुद्ध होने से बुद्धिमान् पुरुषों द्वारा स्वीकार करने योग्य नहीं हैं, अतः, अणुरूप पदार्थ का अस्तित्व किसी भी युक्ति द्वारा सिद्ध नहीं होता है। 18 रत्नप्रभसूरि द्वारा शून्यवाद की समीक्षा
शून्यवादी दार्शनिकों ने आचार्य रत्नप्रभसूरि के समक्ष पदार्थ की सत्ता को अस्वीकार करते हुए सर्वप्रथम चार प्रश्न रखे थे कि आप ज्ञेय
517 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 81 58 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 81
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