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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
परमाणु को स्वयं ही अपना कारण मानते हैं, तो यह बताइए कि सत्प परमाणु स्वयं ही कार्यरूप में परिणत होता है ? या असत्रूप परमाणु स्वयं कार्यरूप परिणत होता है ? या 3. सत्-असत् (उभय) रूप परमाणु स्वयं ही कार्यरूप में परिणमन करता है ? ऐसा कहते हैं, तो वह परमाणु को उत्पन्न करते समय ही स्वयं कार्यरूप में परिणमन करता है, या द्वितीय क्षण में कार्यरूप में परिणमन करता है ? उत्पत्ति के समय में परमाणु को कार्यरूप में परिणमन करता हुआ मानें, तो यह उचित नहीं है, क्योंकि अपनी उत्पत्ति के समय तो परमाणु स्वयं ही स्वयं की उत्पत्ति में व्यस्त होते हैं, इसलिए वे स्वयं ही कार्यरूप में परिणमन करने में असमर्थ होते हैं।"
पुनः, शून्यवादी बौद्ध-दार्शनिक यह समस्या उठाते हैं कि जो पदार्थ उत्पन्न होता है, उसकी जो उत्पत्ति है, वह उत्पत्ति ही उस पदार्थ की क्रिया है और वह क्रिया ही उस पदार्थ का कारण है। इस तर्क के आधार पर ही बौद्ध-दार्शनिक यह कहते हैं कि पदार्थ की उत्पत्ति ही उसका कारण है और वही उसका कार्य भी है, अर्थात् पदार्थ, उसका कारण और उसका कार्य- ये स्वतंत्र सत् नहीं हैं, अर्थात् शून्य ही हैं। 15
जैन - बौद्धों के इस कथन की समीक्षा करते हुए रत्नप्रभसरि कहते हैं कि पदार्थ अपने उत्पत्तिकाल में ही कार्य (क्रिया) और कारणदोनों होते हैं, यदि ऐसा मानें, तो रूपाणु रसाणुओं का और रसाण रूपाणुओं का उपादान-कारण बन जाएगा। चूँकि दोनों की उत्पत्ति में कोई भेद नहीं है, अतः, यह तर्क उचित नहीं हैं। पुनः, सत्ता अपने उत्पत्ति-क्षण से भिन्न दूसरे क्षण में कार्योत्पत्ति करती है, अर्थात परमाणु अपने उत्पत्ति के दूसरे क्षण में कार्योत्पत्ति करता है, यह दूसरा पक्ष भी उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो आपके क्षणिकता के सिद्धांत में भी दोष आ जाएगा और वस्तु की क्षणिकता सिद्ध नहीं होगी।16
सत्प परमाणु कार्य का उत्पादक होता है- यदि ऐसा कहते हैं, तो सत्प परमाणु अपने उत्पत्तिकाल को छोड़कर हमेशा ही कार्योत्पत्ति करता रहेगा- यह मानना होगा, क्योंकि सप परमाणु का प्रथम समय (क्षण) को छोड़कर शेष समय में उसकी सतरूपता में कोई विशेष परिवर्तन (अंतर) नहीं आएगा। असत्रूप परमाणु कार्योत्पत्ति करता है- यह कथन
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514 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 80 515 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 81 516 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 81
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