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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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है ? (साध्य अणु, साधन या हेतु-पदार्थ)। सर्वप्रथम, साध्य-साधन के मध्य संबंध का निश्चय किए बिना ही अनुमान से अणु का ज्ञान संभव नहीं होगा, क्योंकि अनुमान व्याप्ति पर निर्भर होता है, जबकि अणु और पदार्थ में व्याप्ति-संबंध नहीं होता है और यदि व्याप्ति-संबंध मान लें, तो अतिप्रसंग-दोष आ जाएगा। यदि बिना व्याप्ति-संबंध के ही अनुमान से अणु का ज्ञान संभव मानेंगे, तो फिर चाहे किसी भी हेत से किसी भी साध्य की सिद्धि हो जाएगी, जो युक्तिसंगत नहीं है। इस प्रकार, अविनाभाव अर्थात् व्याप्ति-संबंध के.बिना अर्थात साध्य-साधन के संबंध के निश्चय के बिना अनुमान से अणु-ज्ञान संभव नहीं होगा। दूसरे, यदि यह कहते हैं कि साध्य-साधक संबंध के आधार पर अनुमान से अणु का ज्ञान होता है, तो यह बताइए कि उस साध्य-साधक-संबंध का ज्ञान- 1. प्रत्यक्ष से होता है? या 2. अनुमान से होता है ? प्रत्यक्ष से तो अणु और उसके ज्ञान के मध्य साध्य-साधक-संबंध का निश्चय असंभव है, क्योंकि अणु अतीन्द्रिय होने से वह पदार्थ ज्ञान का हेतु या लिंग बनने में समर्थ नहीं होता है, साथ ही अविनाभाव-संबंध के ज्ञान के बिना व्याप्ति-संबंध नहीं होगा और व्याप्ति के बिना अनुमान संभव नहीं होगा। दूसरे, यदि अनुमान से व्याप्ति-संभव का निश्चय मानेंगे, तो इसमें परस्पराश्रय-दोष उत्पन्न होता है, अर्थात् अविनाभाव-संबंध का निश्चय होने पर अनुमान सम्भव होगा और अनुमान के आधार पर अविनाभाव-संबंध या व्याप्ति-संबंध का निश्चय होगा, इस प्रकार तो, उनमें परस्पराश्रय-दोष उत्पन्न होगा, अथवा यदि अनुमान मानते हैं, तो फिर अनुमान का संबंध गृहीत है ? या अगृहीत है ? इस प्रकार, पुनः-पुनः उन्हीं प्रश्नों की आवृत्ति होने से अनवस्था-दोष उत्पन्न होगा, अतः, अनुमान से भी परमाणु की प्रतीति संभव नहीं होगी।
इस प्रकार, न तो प्रत्यक्ष से और न अनुमान-प्रमाण से अणु (परमाणु) का ज्ञान संभव है। इस प्रकार, यदि हम पदार्थ को अणुरूप मानते हैं, तो उसका ज्ञान न तो प्रत्यक्ष से ही संभव होता है और न अनुमान से ही संभव होता है। इस आधार पर शून्यवादी बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि परमार्थतः न कोई ज्ञान है और न कोई ज्ञान का विषय (ज्ञेय) है, अतः, पदार्थ की कोई सत्ता नहीं है।
पुनः, शून्यवादी बौद्ध अपने पूर्वपक्ष की सिद्धि हेतु जैनों से यह प्रश्न करते हैं कि आप परमाणु को- 1. नित्य मानते हैं ? या 2. अनित्य मानते
512 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 77, 78
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