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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
हैं? यदि आप परमाणु को नित्य (अपरिणामी) मानते हो, तो वह नित्य - परमाणु अर्थक्रियाकारी है ? या नहीं है ? अर्थात् अर्थक्रिया करने में समर्थ है? या अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है ? यदि परमाणु अर्थक्रिया करने में समर्थ नहीं है, अर्थात् कुछ भी क्रिया करने वाला नहीं हं, तो वह आकाश - पुष्प के समान असत् हो जाएगा । पुनः, यदि उस परमाणु की कोई सत्ता ही नहीं है, तो फिर परमाणु ज्ञान का विषय कैसे बनेगा ? अर्थात् नहीं बनेगा। इस प्रकार, हमारे शून्यवाद के सिद्धांत को ही स्वीकार करना होगा। इस प्रकार से, जब कोई भी पदार्थ सत् नहीं है, तो फिर किसी भी प्रमाण से पदार्थ की सत्ता सिद्ध नहीं होगी, क्योंकि जिसकी सत्ता ही नहीं है, वह ज्ञान का विषय कैसे हो सकता है ? दूसरे, यदि आप यह कहते हैं कि परमाणु अर्थक्रिया करने में समर्थ है, तो वह परमाणु अर्थक्रिया - 1. क्रम से करता है, या 2. युगपत् रूप से अर्थक्रिया करता है ? यदि अणु अर्थक्रिया क्रम से करता है, तो वह- 1. स्वभाव के भेद के बिना अर्थक्रिया करता है या 2. स्वभाव का भेद करके अर्थक्रिया करता है ? स्वभाव के भेद के बिना अर्थक्रिया करता है, यदि ऐसा कहते हैं, तो वह- 1. जिस स्वभाव से पहले जो क्रिया की, अर्थात् जो कार्य पहले किया, उसी स्वभाव से वह उत्तरकालीन-क्रिया या कार्य करता है, अथवा जिस स्वभाव से उत्तरकालीन-क्रिया करता है, उसी स्वभाव से पूर्वकालीन - क्रिया भी की है? प्रथम पक्ष में तो पूर्वकालीन - क्रिया करते समय ही उत्तरकालीन-क्रिया होने का प्रसंग आ जाएगा। क्योंकि चाहे पूर्व की क्रिया हो, चाहे उत्तर की क्रिया- दोनों की एक ही स्वभाव से निष्पत्ति (उत्पत्ति) होती है। इसी प्रकार, दूसरे पक्ष में भी उत्तर - कार्योत्पत्ति के समय ही पूर्व-कार्योत्पत्ति का प्रसंग आ जाएगा । पुनः, अर्थक्रिया में स्वभाव-भेद से परमाणुओं की क्षणिकता समाप्त हो जाएगी, क्योंकि स्वभाव-भेद होना ही क्षणभंगुरता का लक्षण है, अतः, नित्य परमाणुओं में क्रम से अर्थक्रियाकारित्व सिद्ध नहीं हो सकता और यदि युगपत् अर्थक्रियाकारित्व मानो, तो परमाणु स्वयं ही सम्पूर्ण कार्यों को एक साथ ही सम्पन्न करने में समर्थ हो जाएंगे, तो फिर दूसरे क्षण में अर्थक्रियाकारित्व का अभाव हो जाने से परमाणु असत् की कोटि में आ जाएंगे। इस प्रकार, शून्यवादी जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि से यह तर्क करते हैं कि आप परमाणु में अर्थक्रियाकारित्व मानने पर तो उसे नित्य भी नहीं कह सकते हैं, 513 क्योंकि यदि परमाणु को नित्य मानते हैं, तो उसमें अर्थक्रियाकारित्व (परिर्वतन) सम्भव ही होगा, क्योंकि अर्थक्रियाकारित्व
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513 रत्नाकरावतारिका, भाग I, रत्नप्रभसूरि, पृ. 77 78
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