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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
साध्य की सिद्धि की जाती है, तो साध्य की सिद्धि किसी पक्ष में होती है। यद्यपि हेतु की चर्चा में बौद्धों ने भी पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व और विपक्ष-असत्व- ऐसे तीन कारण मानें हैं और यह कहा था कि असिद्ध, विरुद्ध एवं अनेकान्तिक-दोषों का परिहार करने के लिए यह त्रैरूप्य हेतु-लक्षण आवश्यक हैं। इस प्रकार, बौद्धदर्शन भी अनुमान में हेतु-लक्षण निर्धारण करते हुए पक्ष को स्वीकार करता है, फिर भी उनका यह मानना है कि पक्ष की आवश्यकता केवल हेतु-लक्षण में है, वह अनुमान का आवश्यक अंग नहीं होगा। (ब) पक्ष की अनावश्यकता के संबंध में बौद्धों का पूर्वपक्ष
अनुमान के पाँच अंगों को लेकर बौद्ध-दार्शनिकों में भी मतभेद देखा जाता है। डॉ. धर्मचन्द जैन लिखते हैं कि बौद्धदर्शन में परार्थानुमान के अवयवों पर विचार करने के अनन्तर विदित होता है कि बौद्ध-दार्शनिक न्यायदर्शन में प्रतिपादित प्रतिज्ञा, उपनय एवं निगमन का खंडन करते हैं। उनके मत में पंचावयव-पंरपरा अंगीकृत नहीं है। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि सामान्यतया जिसे प्रतिज्ञा या साध्य कहा जाता है, उसे कुछ दार्शनिकों ने पक्ष भी माना है। सामान्यतया पक्ष उसको कहते हैं, जिसमें साध्य की सिद्धि की जाती है, किन्तु साध्य की सिद्धि करने वाला सम्पूर्ण वाक्य भी पक्ष के रूप में स्वीकार किया जाता है। बौद्ध-दार्शनिकों ने पदार्थ अनुमान के अवयवों की संख्या के संबंध में चार प्रकार के मंतव्यों का उल्लेख किया है- प्रथमतः, दिङ्नाग ने अपने ग्रन्थ न्याय-प्रवेश में पक्ष, हेतु और दृष्टांतऐसे तीन अंगों को स्वीकार किया है। यहाँ वे उपनय और निगमन को परार्थानुमान का आवश्यक अंग नहीं मानते, क्योंकि उपनय-हेतु वाक्य की पुनरावृत्ति है और निगमन पक्ष की ही पुनरावृत्ति है। न्यायप्रवेश में दिङ्नाग लिखते हैं कि पक्ष, हेतु और दृष्टांत-वचनों से प्राश्निकों को अप्रतीत अर्थ का ज्ञान कराया जाता है। 501 बौद्ध-न्याय के इतिहास में दिङ्नाग के पश्चात् धर्मकीर्ति का क्रम आता है। धर्मकीर्ति ने दिङ्नाग द्वारा मान्य तीन अवयवों में से पक्ष को अलग करके शेष दो अवयवों को ही आवश्यक माना है। वे न्यायबिन्दु में लिखते हैं कि साधर्म्य एवं वैधर्म्य- दोनों प्रकार के अनुमान में पक्ष का निर्देश करना आवश्यक नहीं है।508 इसका फलित यह
506 बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचन्द जैन, पृ. 273, 274 5 देखें - पक्ष हेतु दृष्टान्त वचनैहि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यत इति-न्यायप्रवेश पृ. 1 508 देखें - द्वयोरप्यनयोः प्रयोगयो विश्यं पक्ष निर्देशः । -न्यायबिन्दु 3.24
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