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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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है कि धर्मकीर्ति के अनुसार, अनुमान में प्रतिज्ञा या पक्ष का उल्लेख आवश्यक नहीं है। यद्यपि मोक्षाकर गुप्त आदि कुछ बौद्ध-दार्शनिक न्यायदर्शन के पंच अवयवों का तो खंडन करते हैं, किंतु वे पक्षधर्मता और व्याप्ति को परार्थानुमान के लिए आवश्यक मानते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि बौद्धदर्शन में पक्ष या प्रतिज्ञा को अनुमान का अवयव मानने के संबंध में ही परस्पर मतभेद हैं। मात्र धर्मकीर्ति ही एक ऐसे व्यक्ति हैं, जो प्रतिज्ञा या पक्ष को आवश्यक मानते हैं। मात्र यही नहीं, धर्मकीर्ति ने तो यहाँ तक कहा है कि विशिष्ट मति वाले अधिकारी के लिए तो केवल एक हेतु ही अनुमान के लिए पर्याप्त है। इस प्रकार, धर्मकीर्ति ने तो पक्ष या प्रतिज्ञा को अनुमान का अवयव मानने से इंकार कर दिया था।
जहाँ तक जैन–दार्शनिकों का प्रश्न है, उन्होंने अनुमान के अवयवों की संख्या को लेकर दो, पाँच और दस अवयव माने हैं। दशवैकालिकनियुक्ति में इन तीनों प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख मिलता है। जैन-दार्शनिक यह मानकर चलते हैं कि प्रबुद्ध व्यक्तियों के लिए तो केवल प्रतिज्ञा और हेतु- ये दो ही अवयव अनुमान करने के लिए पर्याप्त हैं, फिर वे सामान्य बुद्धि के लिए न्यायदर्शनसम्मत पांच अंग मानते हैं, किन्तु विशेष स्पष्टीकरण के लिए तो उन्होंने दस अवयव ही माने हैं। जैन-दर्शन में इन दस अवयवों का उल्लेख दो प्रकार से मिलता है। प्रथम प्रकार में- 1. प्रतिज्ञा, 2. प्रतिज्ञा-विशुद्धि 3. हेतु 4. हेतु-विशुद्धि 5. दृष्टांत 6. दृष्टांत-विशुद्धि 7. उपनय 8. उपनय-विशुद्धि 9. निगमन 10. निगमन-विशुद्धि । अन्यत्र, वे न्याय-भाष्य का अनुमान करते हुए प्रकारान्तर से निम्न दस अंगों का भी निर्देश करते हैं- 1. प्रतिज्ञा, 2. प्रतिज्ञा-विभक्ति, 3. हेतु, 4. हेतु-विभक्ति, 5. विपक्ष, 6. विपक्ष-प्रतिषेध, 7. दृष्टांत 8. आशंका, 9. आशंका-प्रतिषेध और 10. निगमन। यद्यपि जैन-दार्शनिक सिद्धसेन, अकलंक आदि भी बौद्ध-दार्शनिक धर्मकीर्ति के समान ही व्युत्पन्नमति के लिए दो अवयवों को स्वीकार करते हैं, फिर भी जहाँ बौद्ध-दार्शनिक धर्मकीर्ति पक्ष को अनुमान का आवश्यक अवयव नहीं मानते हैं, वहीं जैन-दार्शनिक पक्ष और हेतु- ऐसे दो अवयवों को तो अवश्य ही स्वीकार करते हैं। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि बौद्ध-दार्शनिकों में धर्मकीर्ति ही एक ऐसे दार्शनिक हैं, जो स्पष्ट रूप से परार्थानुमान के अवयवों में पक्ष या प्रतिज्ञा को आवश्यक नहीं मानते हैं। जैन-दार्शनिकों में
509 देखें - बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचन्द जैन, पृ. 275
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