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________________ 326 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा ये तीनों प्रकार के हेतु तभी सदहेतु बनते हैं, जब वे अपने साध्य की सिद्धि करने में समर्थ होते हैं। ऐसे हेतु सामर्थ्य वाले हेतु भी कहलाते हैं। असिद्धता, व्यभिचार एवं बाधित आदि हेत्वाभासों से रहित जो हेतु होते हैं, वे सद्हेतु और सामर्थ्य वाले हेतु कहलाते हैं, किन्तु इसके विपरीत, असिद्धता, व्यभिचार और बाधित इन दोषों से युक्त हेतु असद्हेतु या असमर्थ हेतु कहलाते हैं, क्योंकि ये हेतु साध सिद्ध करने में असमर्थ होते हैं। जब हम कहते हैं कि 'हृदो वह्निमान् धूमवत्वात्, अर्थात् यह तालाब अग्नि से युक्त है, क्योंकि यह धूमयुक्त है- इस अनुमान में असिद्धता नाम का दोष रहा हुआ है। 'पर्वतो वह्निमान् प्रमेयत्वात्'. अर्थात् पर्वत अग्नियुक्त है, क्योंकि वह प्रमेय है- यह हेतु व्यभिचार-दोष से ग्रसित है, क्योंकि पर्वत अग्नियुक्त हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। 'वह्निः अनुष्णः द्रव्यत्वात्, अग्नि ऊष्ण नहीं है, क्योंकि वह द्रव्य है, यह अनुमान में बाधित-दोष से ग्रसित है, क्योंकि द्रव्य-हेतु अनुष्ण भी हो सकता है। तात्पर्य यह है कि असिद्ध, व्यभिचारी और बाधित आदि हेतु-दोषों से रहित हेतु ही सद्हेतु या सामर्थ्यवाले हेतु कहलाते हैं। जैन - जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों की इस स्थापना का फलितार्थ बताते हुए कहते हैं कि इन सबका तात्पर्य तो 'पक्ष से असम्बद्धता ही है, जैसे- 'असिद्धता' का तात्पर्य भी यही होता है कि हेतु का पक्ष में नहीं होना, जैसे कि शब्द का गुण श्राव्य होना है, किन्तु यदि यह कहें कि शब्द का गुण देखना है, तो यह गुण हेतु के पक्षभूत 'शब्द' में नहीं रहना है, अतः, असिद्धता दोष से ग्रसित कहलाता है। इन असिद्धतादि दोषों से रहित हेतु पक्ष में रहता है, इसलिए अनुमान में पक्ष का प्रयोग अवश्य करना चाहिए और पक्ष में निहित हेतु सद्हेतु या समर्थ-हेतु होता है, जो स्वतः अपनी सिद्धि कर सकता है, अतः, आप बौद्धों को हेतु के लिए पक्ष की आवश्यकता को स्वीकार कर लेना चाहिए, अन्यथा आपको असमर्थ हेतु को ही हेतु के रूप में स्वीकार करना पड़ेगा।500 बौद्ध - इसके उत्तर में, बौद्ध कहते हैं कि असमर्थ हेतु को समर्थ हेतु कैसे कह सकते हैं ? और यदि हेतु ही सद् नहीं है, तो पक्ष कहाँ होगा ?501 499 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 439 500 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 439 Sol रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि. पृ. 439 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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