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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
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- जैन - इसके उत्तर में, जैन-दार्शनिक कहते हैं कि जब हम व्याप्ति (जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है) करते हैं, तो उससे हेतु
और साध्य में अविनाभाव-संबंध का बोध करते हैं, जो सामान्य ज्ञानरूप ही होता है, अतः, किसी स्थान विशेष पर साध्य की सिद्धि करते समय अत्र अर्थात् पर्वत पर ऐसे पक्ष का प्रयोग तो करना ही पड़ता है, अर्थात् यह बताना होता है कि वह अग्नि पर्वत (पक्ष) पर ही है, अन्यत्र नहीं है, अर्थात् रसोईघर में अथवा चौराहे पर नहीं है।
उपर्युक्त सम्पूर्ण कथन का फलितार्थ तो यह होता है- 1. व्याप्ति ग्रहण के समय में धूम का आधार सामान्य बताते हैं, जबकि अनुमान में पक्ष के प्रयोग द्वारा उसका आधार. विशेष बताया जाता है। 2. उपसंहार के समय में तो आधार के विशेष होने का 'अत्र' शब्द द्वारा सूचन तो आप भी करते ही हैं। 1. व्याप्ति ग्रहण के समय में अग्नि का सामान्य आधार बताया जाता है। 2. परार्थानुमान के समय अग्नि का विशिष्ट आधार बताने के लिए 'अत्र' शब्द का प्रयोग किया जाता है। वह 'अत्र शब्द पक्ष का सूचक होता है, अतः, उसका प्रयोग अवश्य करना चाहिए।"
बौद्ध - इस पर, बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि तीन प्रकार के हेतु के अन्तर्गत ही पक्ष का प्रयोग हो जाता है। वे तीन प्रकार के हेतु निम्न हैं- 1. कार्य हेतु 2. स्वभाव-हेतु और 3. अनुपलब्धि (अभाव) हेतु। 1. हेतुरूप जो पदार्थ होता है, वह साध्य का कार्य होता है, अर्थात् अग्नि में से ही उत्पन्न होने वाला धूम कार्य हेतु कहलाता है, अतः, धुएँ को देखकर अग्नि का अनुमान करना कार्य हेतु के आधार पर अनुमान करना है, यथा- 'पर्वतो वह्निमान धूमात् महानसवत्- यहाँ जो धूम-हेतु है अग्नि का कार्य होने से उसे कार्य हेतु कहते हैं। 2. हेतुरूप जो धूम नामक पदार्थ है, वह भी दाहात्मकता के समान ही साध्य अग्नि का स्वभाव है, अर्थात् धूम और दाहात्मकता- ये दोनों अग्नि के स्वभाव हैं। इस प्रकार, जिसका जो स्वभाव होता है, वह स्वभाव-हेतु कहलाता है। 3. जो पदार्थ हमारे प्रत्यक्षीकरण का विषय हैं, उनमें से किसी का अभाव होना, जैसे- इस कमरे में यह घट नहीं है, वह अनुपलब्धि (अभाव) रूप हेतु कहलाता है।
496 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 437, 438 4 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 438 498 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 438, 439
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