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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा नहीं है। साध्य की सिद्धि तो मात्र व्याप्ति-संबंध, हेतु की पक्षधर्मता और उपनय द्वारा हो जाती है। 93
जैन - इसके उत्तर में, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्ध-मत का खंडन करते हुए कहते हैं कि जहाँ-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ-वहाँ अग्नि होती हैऐसी व्याप्ति करते हुए जब हम यह कहते हैं कि जहाँ-जहाँ धुआँ है, तो इस धूम नामक हेतु का कोई न कोई आधार तो चाहिए, क्योंकि सामान्य रूप से व्याप्ति का ज्ञान होने पर भी अन्ततः तो हमको यह तो बताना ही पड़ेगा कि हेतु का आधाररूप धुआँ कहाँ है ? क्या वह धुआँ रसोईघर में है, या चौराहे पर है ? या पर्वत पर है ? यह तो बताना ही होगा, अन्यथा स्थान-विशेष का बोध तो होगा ही नहीं और उसके अभाव में साध्य की सिद्धि किस स्थान पर की जाएगी ? जहाँ-जहाँ धुआँ, वहाँ-वहाँ अग्निइस व्याप्तिरूपी सामान्य के कथन के साथ में हमें स्थान-विशेष का भी कथन तो करना ही पड़ेगा कि धुआँ कहाँ पर है ? धुआँ किस स्थान पर है, यह बताने के लिए स्थान-विशेष का कथन तो करना ही पड़ेगा कि धूम 'पर्वत' पर है, अतः, पक्ष का प्रयोग तो अवश्यंभावी होगा। आप बौद्ध जिस प्रकार पक्ष-धर्मतारूप उपसंहारात्मक-वचन मानते हैं, उसी प्रकार साध्य की सिद्धि हेतु परार्थानुमान अर्थात् किसी दूसरे व्यक्ति को साध्य की सिद्धि कराते समय ‘पक्ष' का प्रयोग भी अवश्य ही करना चाहिए।
बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिकों की अवधारणा यह है कि जब हम ऐसी व्याप्ति करते हैं कि जहाँ-जहाँ धुआँ है, वहाँ-वहाँ अग्नि है, तो हमें इस व्याप्ति-ज्ञान से ही धूम के साथ अग्नि के अविनाभाव-सम्बन्ध का निश्चय हो जाता है, साथ ही यह भी निश्चय हो जाता है कि यह धुओं किसी स्थान विशेष पर्वत आदि पर ही है, अन्यत्र नहीं है। इस प्रकार, हेतु विशिष्टधर्मी (पक्ष-पर्वत) का बोध अपने-आप ही हो जाता है, अतः, यहाँ पर्वत पर आग है- ऐसा पक्षात्मक-कथन करना कोई जरूरी नहीं होता है, सामान्य में ही विशेष का उपसंहार हो जाता है, अत:, हम बौद्धों का मंतव्य है कि परार्थानुमान में पक्ष का प्रयोग करने की कोई आवश्यकता ही नहीं
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493 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 437 494 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 437 495 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 437
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