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________________ 320 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा से होता है। इस प्रकार, धर्मी (पक्ष) का ज्ञान 1. विकल्प से 2 प्रत्यक्ष प्रमाण से और 3. उभय से- ऐसे तीनों प्रकारों से होता है। बौद्ध - जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि द्वारा धर्मी (पक्ष) के ज्ञान के संबंध में उपर्युक्त तीन प्रकारों का उल्लेख किए जाने पर बौद्ध-दार्शनिक यह प्रश्न उत्पन्न करते हैं कि मात्र विकल्प से धर्मी की सिद्धि संभव नहीं है। यदि विकल्प अर्थात् मानसिक-संकल्पना से ही धर्मी की सिद्धि होती हो, तो फिर मानसिक-संकल्पना (विकल्प) मात्र से किसी भी पदार्थ की सिद्धि हो सकती है। परीक्षक व्यक्ति को किसी भी पदार्थ की सिद्धि के लिए किसी भी प्रमाण की आवश्यकता नहीं पड़ेगी, मानसिक-कल्पनामात्र से सबकी सिद्धि हो जाएगी।482 पुनः, बौद्ध-दार्शनिक कहते हैं कि दूसरे, यदि आप पक्ष की सिद्धि प्रमाणमूलक मानते हैं, तो यह भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि आपने पक्ष की सिद्धि में एक तरफ तो विकल्प (कल्पना) को पहला प्रकार और प्रमाण को दूसरा प्रकार बताया है, अर्थात् दोनों को भिन्न-भिन्न बताया है, तो वहीं दूसरी तरफ आपने विकल्प को प्रमाणयुक्त बता दिया, लेकिन यह कथन तो विरोधाभासपूर्ण लगता है। इसी प्रकार, धर्मी (पक्ष) को विकल्प एवं प्रमाण- इन दोनों से सिद्ध बताना भी विरोधाभासपूर्ण है, या तो विकल्प को भी प्रमाण-सिद्ध धर्मी (पक्ष) नामक दूसरे प्रकार के अंतर्गत ही मानना होगा, भिन्न मानने की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी, क्योंकि विकल्प या तो प्रमाणरूप होगा या अप्रमाणरूप। यदि उसे अप्रमाणरूप मानेंगे, तो वह निरर्थक होगा।183 जैन - जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि बौद्धों के इन तर्कों की समीक्षा करते हुए कहते हैं कि बौद्ध-दार्शनिक स्वयं ही तो विकल्पसिद्ध धर्मी (पक्ष) को स्वीकार करते हैं, तो फिर हमारे द्वारा प्रतिस्थापित विकल्पसिद्ध धर्मी (पक्ष) के सिद्धांत का खंडन क्यों करते हैं ? यदि आप विकल्पसिद्ध धर्मी (पक्ष) का निषेध करेंगे, तो फिर अनुमान ही कैसे कर पाएँगे ? क्योंकि आप जो अनुमान करते हो, उसमें विकल्पसिद्ध धर्मी का निषेध करने के लिए आपको विकल्पसिद्ध धर्म को ही पक्ष बनाना पड़ेगा।484 481 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 432 482 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 433 483 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 433 484 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि प 427 : Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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