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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा
317 हेतु का विपक्ष में अभाव होना चाहिए। यदि हेतु विपक्ष में भी उपस्थित रहता है, तो वह हेतु साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ है। यदि धूम नामक हेतु अग्नि के साथ-साथ तालाब में भी पाया जाए, तो वह अग्नि की सिद्धि करने में समर्थ नहीं माना जा सकता है।"5
बौद्ध-मत में जो हेतु के त्रैरूप्य लक्षण बताए गए हैं, वे वस्तुतः असिद्ध, विरुद्ध और अनेकान्तिक-हेत्त्वभास के निराकरण के लिए आवश्यक माने जाते हैं। इसी दृष्टि से, बौद्धों ने हेतु को त्रैरुप्य लक्षण वाला बताया था, वैसे जैनों के हेतु के 'अन्यथा-अनुपपत्ति नामक लक्षण से उनका कोई विरोध नहीं है।
475 देखें - 1. प्रमाणमीमांसा 1.2.9, पृ. 40
2. तुलनीयं - तस्मिन् असत्त्वमेव निश्चितं तृतीयं रूपम्। तत्रासत्त्वग्रहणेण विरूद्धस्य निरासः । विरूद्धो हि विपक्षेऽस्ति। एवकारेण साधारणस्य विपक्षकदेशवृत्तेर्निरासः । प्रयत्नानन्तरीयकत्वे साध्ये ह्यनित्यत्वं विपक्षैकदेशे विद्युदादौ अस्ति। आकाशादौ नास्ति। ततो नियमेनास्य निरासः । असत्त्वशब्दाद् हि पूर्वस्मिन् अवधारणेऽयमर्थ: स्यात्विपक्ष एव यो नास्ति स हेतुः । तथा च प्रयत्नानन्तरीयकत्वं सपेक्षऽपि सर्वत्र नास्ति। ततो न हेतु: स्यात्। ततः पूर्व न कृ तम्। निश्चितग्रहणेन सन्दिग्धविपक्ष व्यावृत्तिकोऽनैकान्तिको निरस्तः।।
- धर्मोत्तर, न्यायविन्दु टीका 2.5. पृ. 108-109 476 देखें - बौद्ध प्रमाण-मीमांसा की जैन-दृष्टि से समीक्षा, डॉ. धर्मचन्द जैन, पृ. 222
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