________________
रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
471
473
न्यायबिन्दु में इसे स्पष्ट करते हुए पुनः कहा गया है कि साध्य-धर्म की समानता रखने वाले अर्थ को सापेक्ष कहा जाता है। सपक्ष अनुमेय होता है। इसके विरुद्ध, जो सपक्ष एवं अनुमेय नहीं होता है, उसे विपक्ष कहा जाता है। धर्मकीर्त्ति के अनुसार, सपक्ष से विरुद्ध या सपक्ष के अभाव वाला जो अन्य है, वह विपक्ष कहलाता है। 1472 धर्मकीर्त्ति के पश्चात् धर्मोत्तर और अर्चट् आदि ने भी इसी मत की पुष्टि की। धर्मोत्तर ने धर्मकीर्ति के न्याय - बिन्दु की टीका में इस संबंध में विस्तार से प्रकाश डाला है। उन्होंने धर्मकीर्त्ति के न्याय - बिन्दु के द्वितीय परिच्छेद के सूत्र क्रमांक 4, 5, 6, और 7 की टीका में इसे स्पष्ट किया है । यहाँ संक्षेप में1. पक्षधर्मत्व का अर्थ है कि हेतु को पक्ष में उपस्थित होना चाहिए ।' जैसे, पर्वत पर अग्नि है - इस साध्य की सिद्धि के लिए जो धूम हेतु दिया जाता है, वह हेतु भी पर्वत पर उपस्थित होना चाहिए । अगर पर्वत पर धुआँ नहीं होगा, तो पर्वत पर अग्नि की सिद्धि नहीं होगी, इसलिए बौद्ध - दार्शनिकों का कहना है कि जहाँ अनुमेय की सिद्धि की जाती है, वहाँ हेतु की सिद्धि आवश्यक है। यदि पर्वत पर अग्नि की उपस्थिति को सिद्ध करना है, तो उसकी सिद्धि के लिए जो धूम हेतु है, उसे भी पर्वत पर होना चाहिए । यदि पर्वत पर धूम नहीं होगा, तो उससे पर्वत पर अग्नि की सिद्धि नहीं होगी- यही पक्षधर्मत्व है। 2. दूसरा हेतु सपक्षसत्व है। इसका अर्थ है कि हेतु को सपक्ष अर्थात् साध्य के साथ ही अविनाभाव रूप से होना चाहिए। साध्य के अभाव में उसे न होना चाहिए । यदि हेतु सपक्ष अर्थात् अग्नि के अतिरिक्त भी अन्यत्र पाया जाता है, तो वह हेतु सपक्ष में न होने के कारण साध्य की सिद्धि करने में असमर्थ होता है। 474 3. तीसरे,
316
-
471 देखें - साध्यधर्म सामान्येन समानोऽर्थः सपक्षः । 472 देखें न सपक्षोऽसपक्षः । - न्यायबिन्दु 2 / 11
न्यायबिन्दु 2 / 10
473 देखें – एवकारेण पक्षैक देशासिद्धो निरस्तः यथा चेतनास्तरवः स्वापाद् इति पक्षीकृतेषु तरुषु पत्र संकोचलक्षणः स्वाप एकदेशे न सिद्धः । न हि सर्वे वृक्षा रात्रौ पत्र संकोच भाजः किन्तु के
चिदेव |
न्यायबिन्दु टीका 2.5, पृ. 105
1. प्रमाणमीमांसा, 1.2.9, पृ. 39-40
2. तुलनीयं - तस्मिन् एव सत्यं निश्चितमिति द्वितीयं रूपम् । इहापि सत्त्वग्रहणेन विरुद्धो निरस्तः । स हि नास्ति सपक्षे । एवकारेण साधारणानैकान्तिकः । स हि न सपक्ष एव वर्तते किन्तुभयत्रापि । सत्त्वग्रहणात् पूर्वावधारण वचनेन सपक्षाव्यापिसत्ताकस्यापि प्रयत्नानन्तरीय कस्य हेतुत्वं कश्चितम् । पश्चाद् अवधारणे त्वयमर्थः स्यात् सपक्षे सत्त्वमेव यस्य स हेतुरिति प्रयत्नानन्तरीयकत्वं न हेतुः स्यात् निश्चितवचनेन सन्दिग्धान्चयोऽनैकान्तिको निरस्तः । यथा सर्वज्ञः कश्चिद् वक्तृत्वात् । वक्तृत्वं हि सपक्षे सर्वज्ञे सन्दिग्धम् ।
474 देखें
-
Jain Education International
- धर्मोत्तर, न्यायबिन्दु टीका 2.5, पृ. 107
—
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org