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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
रत्नप्रभसरि कहते हैं कि चाहे पृथ्वी-द्रव्य एक हो, या आकाश-द्रव्य एक हो, किंतु दोनों उदाहरणों में वे दूर-दूर स्थित हैं, अर्थात् रसोईघर के धुएँ से पर्वतीय-अग्नि दूर है तथा जलचंद्र से आकाशचंद्र भी दूर है, अब, जहाँ धुआँ होगा, वहीं आग होगी। रसोईघर के धुएँ से रसोईघर की आग की सिद्धि होगी और पर्वत के धुएँ से पर्वत की आग की सिद्धि होगी। आकाश में रहे हुए चंद्र से आकाश-चंद्र की ही सिद्धि होगी और जल में रहे हुए चंद्र से जल-चंद्र की सिद्धि होगी। जल के चंद्र से नभ-चंद्र की सिद्धि नहीं होगी। जिस प्रकार रसोईघर और पर्वत के बीच क्षेत्र की दूरी है, इसी प्रकार जल और मभ में भी क्षेत्रगत दूरी है, अतः, इन उदाहरणों से हेतु-लक्षण में पक्षधर्मता की अनिवार्यता सिद्ध नहीं होती है, इसलिए हम जैनों का यह कथन उचित है कि निश्चित-अन्यथानुपपत्ति ही हेतु का एकमात्र निर्दोष लक्षण है। इसी से अविनाभाव-संबंध या व्याप्ति-संबंध निश्चित हो जाता है। आप बौद्धों का पक्षधर्मता नामक हेतु का लक्षण दोषयुक्त होने से समुचित नहीं है।
बौद्ध - अपने पक्ष की सिद्धि हेतु बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि सिर्फ पक्षधर्मता ही अनुमान में साध्य की सिद्धि में साधक होती है, अथवा साध्य की सिद्धि का कारण है- ऐसा भी नहीं है, अपितु पक्षधर्मता होते हए भी हेतु और साध्य में कार्य-कारण-भाव भी होना चाहिए। पुनः, यह कार्य-कारण-भाव भी विचित्र-विचित्र प्रकार का होता है, जैसे- जहाँ अग्निरूप कारण समीप प्रदेश में ही धूमात्मक कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है, वहीं आकाश में रहा हुआ चंद्र तो दूरस्थ देश में भी जल-चंद्रात्मक कार्य को उत्पन्न करने में समर्थ होता है, इसलिए रसोईघर के धुएँ में और पर्वतीय-अग्नि के मध्य एक आकाशरूप पक्षधर्मता होते हुए भी कार्य-कारण-भाव नहीं है। यही कारण है कि रसोईघर का धुआँ पर्वत की अग्नि का ज्ञान नहीं करा सकता है, किन्तु जल-चंद्र और नभ-चंद्र के मध्य पक्षधर्मता भी है और साथ ही कार्य-कारण-भाव भी है, अतः, वह साध्य की सिद्धि में गमक बन सकता है।485
जैन - इसके उत्तर में रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि यदि आप बौद्ध-दार्शनिक कार्य-कारण-भाव को मानते हैं, तो यह कार्य-कारण-भाव भी तो विचित्र-विचित्र प्रकार का होता है। इसका तात्पर्य तो यही होता है
404 रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 420, 421 465 रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 421, 422
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