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________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा 311 है, जबकि जल में रहा हुआ चंद्रमा का प्रतिबिम्ब जल का धर्म है, आकाश का धर्म नहीं है, आपके इस अनुमान में पक्षधर्मत्व कहाँ है ? जब आप जल के चन्द्र से आकाश के चंद्र की सिद्धि मानते हैं, तो फिर आपको रसोईघर के धुएँ से पर्वत पर अग्नि की सिद्धि भी मान लेना चाहिए; किंतु वह तो आप मानते नहीं हैं, अतः, आपका यह कथन युक्तिसंगत नहीं लगता है। एक ओर, आप जलगत चंद्रमा के प्रतिबिंब से तो आकाश में चंद्रमा की सिद्धि में पक्षधर्मत्व मान लेते हैं और दूसरी ओर, रसोईघर के धुएँ से पर्वत पर अग्नि की सिद्धि में पक्षधर्मत्व को अस्वीकार करते हैं। इस प्रकार, आपका यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। 62 बौद्ध - इसके उत्तर में, बौद्ध कहते हैं कि जल-चंद्र और आकाश-चंद्र- दोनों का आकाश-द्रव्य एक ही है, क्योंकि आकाश सर्व-व्यापक और अखंड द्रव्य है। आकाश-द्रव्य के सर्वव्यापक होने से जलचंद्र और आकाशचंद्र एकरूप धर्म के धर्मी होने के कारण जल स्थित चंद्र से आकाश स्थित चंद्र की सिद्धि संभव है, क्योंकि दोनों चन्द्र एक ही धर्मी का धर्म है। जल-चंद्र भले ही जल में हो, नभ-चंद्र भले ही नभ में हो, किंतु दोनों स्थानों पर एक ही आकाश-द्रव्य होने से आकाश के पक्षधर्मत्व हो जाने से जल के चन्द्र से आकाश के चंद्र की सिद्धि हो जाती है, अत:, जल-चंद्ररूप हेतु आकाश-चन्द्र का गमक बन जाता है, इसलिए हेतु-लक्षण में पक्षधर्मत्व मानना युक्तिसंगत है। जैन - इसकी समालोचना करते हुए रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि जब आप जल-चंद्र और नभ-चंद्र- दोनों में एक ही आकाश-द्रव्य में स्थित होने के आकाश-कारण के पक्षधर्मत्व को स्वीकार करते हैं, तो फिर रसोईघर की पृथ्वी और पर्वतीय-पृथ्वी में रहा हुआ आकाशरूप धर्मी भी एक ही होना चाहिए, अतः, यहाँ भी आकाश की पक्षधर्मता को स्वीकार करके रसोईघर के धुएँ से पर्वतीय-अग्नि की सिद्धि क्यों नहीं हो जाती है? अर्थात् अवश्य हो जाना चाहिए। जिस प्रकार आप आकाश में पक्षधर्मता को स्वीकार करते हैं, उसी प्रकार पर्वतीय-पृथ्वी में भी पक्षधर्मता को स्वीकार कर लेना चाहिए। यदि आप आकाश में पक्षधर्मता मानते हैं, तो फिर पर्वतीय-अग्नि की सिद्धि में पृथ्वी की पक्षधर्मता क्यों नहीं मानते हैं ? जबकि साध्य को सिद्ध करने में, दोनों में पक्षधर्मता समान रूप से है। पुनः, 462 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 420 463 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 420 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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