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रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा
शब्दान्तर से या परोक्ष रूप से तो अन्ततः आप भी इसी को स्वीकार करते हैं, तो फिर हेतु के इन पाँच लक्षणों को मानने की क्या आवश्यकता है?58
बौद्ध - बौद्ध-दार्शनिक जैनों से कहते हैं कि यदि आप हेतु के प्रथम लक्षण 'पक्षधर्मता को नहीं मानकर मात्र अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का लक्षण मानेंगे, तो फिर किसी को रसोईघर के धुएँ को देखकर ही पर्वत पर रही हुई अग्नि का बोध क्यों नहीं हो जाता है ? क्योंकि आप जैन-दार्शनिक, पक्ष में हेतु का होना चाहिए- ऐसी ‘पक्षधर्मता को हेतु का लक्षण मानते ही नहीं हैं। जब दूरस्थ धुआँ से दूरस्थ अग्नि का बोध हो सकता है, तो फिर रसोईघर के धुएँ से भी पर्वत की अग्नि का बोध हो जाना चाहिए।59
जैन - इसके प्रत्युत्तर में, जैन-दार्शनिक कहते हैं कि रसोईघर के धुएँ से पर्वत पर आग की सिद्धि नहीं होती, क्योंकि दोनों जगह रही हई आग अलग-अलग है। यदि आप पक्ष-धर्मता को हेतु का लक्षण सिद्ध करते हैं, तो फिर रसोईघर के धुएँ में पर्वत को अग्नि की सिद्धि क्यों नहीं होती है ?160
बौद्ध - इस पर, बौद्ध कहते हैं कि यह सत्य है कि हम पक्ष-धर्मता को हेतु का लक्षण अवश्य स्वीकार करते हैं। पर्वत (पक्ष) के धुएँ से ही पर्वत (पक्ष) में रही हुई अग्नि की सिद्धि होगी, रसोईघर के धुएँ से पर्वत (पक्ष) पर रही हुई अग्नि की सिद्धि नहीं होगी, क्योंकि प्रथम तो रसोई का धुआँ तो पर्वत पर नहीं है, दूसरे रसोईघर के धुएँ में पक्षधर्मत्व भी नहीं है। वह धुआँ तो रसोईघर मे ही है, पर्वत पर नहीं है, इसलिए रसोईघर का धुआँ पर्वत की अग्नि को सिद्ध करने वाला कैसे हो सकता
है?461
जैन - बौद्धों के इस तर्क की समीक्षा करते हए रत्नप्रभसरि कहते हैं कि जब आप (बौद्ध) यह कहते हैं कि रसोईघर के धुएँ से पर्वत पर की अग्नि की सिद्धि नहीं हो सकती, तो फिर आपके अनुसार जल-स्थित चंद्रमा के प्रतिबिंब से आकाश में स्थित चंद्रमा की सिद्धि कैसे हो सकती
458 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 419 459 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 419 460 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 419 461 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 419
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