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________________ 309 रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविधि मंतव्यों की समीक्षा बौद्धों एवं नैयायिकों द्वारा कथित हेतु के समग्र लक्षण होते हुए भी यह सद्हेतु नहीं है, अर्थात् हेतु के पाँचों लक्षण होने पर भी दोषयुक्त है। 55 बौद्ध - इस पर बौद्ध-दार्शनिक अपना मंतव्य प्रस्तुत करते हुए . कहते हैं कि 'विपक्ष-असत्व' नाम का यह तीसरा लक्षण अनुमान में होना निश्चित नहीं है, क्योंकि श्यामाभाव वाला रक्त घट और श्वेत पट आदि कुछ भी हो सकते हैं; किन्तु इसमें 'तत्पुत्रत्व' (मित्रा के सात पुत्र) हेतु का अभाव है, इसलिए जैनों का घट में विपक्षासत्व दिखाना प्रमाणभूत नहीं है। वस्तुतः, हमारा हेतु तो, जहाँ-जहाँ श्यामत्व नहीं है, वहाँ-वहाँ सर्वत्र तत्पुत्रत्व भी नहीं है- ऐसा है, अर्थात् हेतु में श्यामत्व भले ही न हो, परन्तु तत्पुत्रत्व (मित्रा के सातों पुत्र) तो अवश्य होना चाहिए, इसलिए विपक्ष-असत्व घट-पटादि में भले ही हो, परन्तु वह निश्चित विपक्ष-असत्व नहीं है, अतः, हेतु के तीन या पाँच लक्षण होना आवश्यक हैं। आप जैनों के रक्तघट के उदाहरण में तीसरा विपक्षासत्व-लक्षण तत्पुत्र के साथ घटित नहीं होता है, इसलिए रक्त घट हेतु में सद्हेतु का लक्षण घटित नहीं होता है और इसीलिए हमारे हेतु-लक्षण में अतिव्याप्ति-दोष भी नहीं आता है। चूंकि आपका रक्तघट में विपक्षासत्व दिखाना हेत्वाभास है, इसलिए हम बौद्ध के अनुसार जहाँ पर तीन लक्षण हों और नैयायिकों के अनुसार पाँच लक्षण हों, वहीं निश्चित रूप से सद्हेतु है, इसलिए हम बौद्धों द्वारा प्रतिपादित हेतु के त्रिलक्षण का सिद्धांत उचित है। जैन - इस पर, जैनाचार्य रत्नप्रभसूरि कहते हैं कि अन्ततः यहाँ आप बौद्धों ने शब्दान्तर से तो "निश्चितान्यथानुपपत्तिः' का ही सहारा लिया है। चाहे विलक्षण हों, चाहे पाँच लक्षण हों; किन्तु 'निश्चित-अन्यथानुपपत्तिः' को तो स्वीकारना ही पड़ा है और इसके बिना आपका मंतव्य सिद्ध भी नहीं होता है, तो फिर आप 'निश्चितान्यथानुपपत्तिः' ही हेतु का एकमात्र सम्यक् एवं निर्दोष लक्षण है- ऐसा क्यों नहीं मानते हैं। पुनः, जैन-दार्शनिक नैयायिकों से भी कहते हैं कि आप नैयायिक भी निश्चितान्यथानुपपत्ति से अतिरिक्त तो अन्य कुछ मानते नहीं हैं। 455 रत्नाकरावतारिका - भाग II रत्नप्रभसूरि - पृ. 417 436 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 417, 418 457 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 418 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
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