SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ रत्नाकरावतारिका में बौद्ध दर्शन के विविध मन्तव्यों की समीक्षा प्रमाण से बाधित नहीं बनना चाहिए । न्याय - दर्शन के अनुसार, हेतु का यह चौथा लक्षण है। 446 306 असत् - प्रतिपक्षत्व न्याय - दर्शन ने हेतु का पाँचवाँ लक्षण असत्प्रतिपक्षत्व दिया है, अर्थात् हेतु का प्रतिपक्ष में नहीं होना चाहिए । इसका तात्पर्य यह है कि अग्निरूपी साध्य का धुएँरूपी जो हेतु है, वह अग्नि से इतर अर्थात् अन्य किसी के साथ नहीं होना चाहिए। आग का प्रतिपक्षी अन्य कुछ भी हो सकता है, किन्तु धुएँ ( हेतु) को आग (साध्य) के साथ ही होना चाहिए, अर्थात् प्रतिपक्षरूप जो इतर पदार्थ हैं, उनमें हेतु का अभाव होना चाहिए। जिस प्रकार पक्ष का सद्भाव होना चाहिए, वैसे ही प्रतिपक्ष का अभाव भी होना चाहिए। तात्पर्य यह है कि पर्वत पर धूम दिखाई देने के कारण वहाँ अग्नि है ही, किन्तु अग्नि के अभाव को सिद्ध करने वाला कोई भी प्रतिस्पर्धी अनुमान नहीं है, इसलिए हेतु का पाँचवाँ लक्षण असत् - प्रतिपक्षत्व कहलाता है । 147 5. इस प्रकार, हेतु को प्रतिपक्ष में सत् नहीं होना चाहिए, जैसे- शब्द नित्य है, क्योंकि उसमें अनित्य-धर्म नहीं है। यह अनुमान सत्-प्रतिपक्ष वाला है, क्योंकि इस अनुमान में साध्य को जो नित्य कहा गया है, उसी को प्रतिपक्षरूप अनित्यता-धर्म को सिद्ध करने वाला प्रतिस्पर्धी अनुमान भी सम्भव है, जैसे- 'शब्द- अनित्य है, क्योंकि वह नित्यता-धर्म से रहित है ।" इस प्रकार के प्रतिपक्षी अनुमान के संभव होने हेतु सत् - प्रतिपक्ष वाला होगा, किन्तु यदि हेतु सत्-प्रतिपक्ष वाला होगा, तो अनुमान दूषित होगा, अतः असत् को प्रतिपक्ष वाला होना चाहिए- यह हेतु का पाँचवाँ लक्षण है। इस प्रकार, बौद्ध - दार्शनिक हेतु को त्रिलक्षण वाला और न्याय - दार्शनिक हेतु को पाँच लक्षण वाला सिद्ध करते हैं। 448 इस प्रकार से बौद्ध - दार्शनिकों एवं न्याय ( न्याय-वैशेषिक) दार्शनिकों ने क्रमशः तीन और पाँच लक्षणों से युक्त हेतु को ही साध्य का गमक माना है। उनके अनुसार, इन्हीं तीन या पाँच लक्षणों से युक्त हेतु (लिंग) निर्दोष है। यहाँ इस प्रकार, उनके पूर्वपक्ष को स्पष्ट किया गया है 1449 446 रत्नाकरावतारिका, भाग II, रत्नप्रभसूरि, पृ. 415,416 447 रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 416 448 रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 416 रत्नाकरावतारिका, भाग II रत्नप्रभसूरि, पृ. 416 449 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002744
Book TitleBauddh Darshan ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJyotsnashreeji
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages404
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy